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तस्य : आचार : कथानुयोग ]
कथानुयोग - - राजा इषुकार : हत्थिपाल जातक
आइए, राज- प्रागंण में एक कुतूहल देखें ।" उसने महल का झरोखा खोला और कहा"महाराज ! इन गधों को देखिए- इनमें जो पक्षी - गीध मांस खाकर वापस वमन कर रहे हैं, वे हलके हो जाने के कारण आकाश में उड़े जा रहे हैं । जिन्होंने खाकर वमन नहीं किया, वे मेरे हाथ में आए हुए गीध की ज्यों जाल में फँसते जा रहे हैं । ब्राह्मण ने उसके पुत्रों ने, पत्नी ने जिन काम भोगों को, घन, वैभव और सम्पत्ति को वमित कर दिया, परित्यक्त कर दिया, छोड़ दिया, उन्हें आप प्रत्यावमित करना चाहते हैं, ले लेना चाहते हैं । " "राजन् ! वमन किये हुए पदार्थ को खाने वाला प्रशंसित नहीं होता - कोई उसे अच्छा नहीं कहता ।
यह सुनकर राजा को अपने कृत्य पर बड़ा पश्चात्ताप हुआ । वह सांसारिक भोगों से, धन-वैभव से विरक्त हो गया । उसने विचार किया कि मुझे अब जरा भी विलम्ब न करते हुए प्रव्रज्या स्वीकार कर लेनी चाहिए ।
उसने रानी से कहा - "कीचड़ में, दलदल में फँसे हुए किसी दुर्बल व्यक्ति को जैसे सबल व्यक्ति बाहर निकाल लेता है, उसी प्रकार हे पाञ्चाली - पाञ्चाल देशोत्पन्ने महारानी ! तुमने सुभाषित गाथाओं द्वारा - अपनी सार युक्त, मार्मिक मधुर वाणी द्वारा मेरा मन, जो आसक्ति एवं मोह के दलदल में फँसा था, उद्धार कर दिया है।
महाराजा को वैराग्य : प्रयाण
राजा का मन वैराग्य से ओतप्रोत हो गया । वह तत्क्षण प्रब्रजित होने को उत्कण्ठित हो उठा। उसने अपने मन्त्रियों को बुलाया, सारी स्थिति बतलाई, उनसे पूछा - "अब तुम लोगों का क्या विचार है ? तुम क्या करोगे ?
मन्त्री बोले - " राजन् ! आप क्या करेंगे ? "
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राजा - " मैं कुमार हस्तिपाल के पास जाऊंगा, प्रव्रज्या स्वीकार करूंगा ।" मन्त्रियों ने कहा – “हम भी वैसा ही करेंगे - प्रव्रजित होंगे ।'
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राजा ने अपने बारह योजन विस्तृत वाराणसी राज्य का परित्याग कर दिया और यह घोषित कर दिया जो चाहें, वे श्वेत राज- छत्र धारण कर लें - राज्याधिकार स्वायत्त
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तीन योजना विस्तृत जन-समुदाय द्वारा अनुगत राजा वाराणसी से निकल पड़ा। वह कुमार हस्तिपाल के पास पहुँचा । हस्तिपाल ने आकाश में अवस्थित हो, राजा को तथा अनुगामी जन समुदाय को धर्म का उपदेश दिया ।
शास्ता ने राजा द्वारा प्रव्रज्या ग्रहण किये जाने की बात को प्राकट्य देते हुए कहा" जैसे हाथी बन्धन को छिन्न कर - तोड़कर स्वतन्त्र हो जाता है— चला जाता है,
१. एतेभुत्वा वमित्वा च पक्कमन्ति विहंगमा ।
ये च भुत्वा न वमिंसु, ते मे हत्थत्थमागता ॥ १७ ॥ अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावामिस्ससि । वन्तादो पुरिसो राज, न सो होति पसंसिओ || १८ ||
२. पंके व पोसं पलिपे व्यसन्नं, बली यथा दुब्बलं उद्धरेय्या |
एवं पि मं त्वं उदतारि भोति, पञ्चालि ! गाथा हि सुभासिताहि ॥ १el
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