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तत्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा इषुकार : हत्थिपाल जातक ४०५ हूँ-मेरे पुत्र अभिनिष्क्रान्त हो गये हैं, मेरी शाखा-रहित पेड़ की-सी स्थिति है । वाशिष्ठि ! (वशिष्ठ-गोत्रोत्पन्ने) ! मेरा यह भिक्षाचर्या स्वीकारने-प्रव्रज्या ग्रहण करने का समय
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पुरोहित ने ब्राह्मणों को बुलवाया। साठ हजार ब्राह्मण एकत्र हो गये । ब्राह्मणों को सारी स्थिति से अवगत कराते हए उसने उनसे पूछा- अब तुम लोगों का क्या विचार है ? तुम क्या करोगे?"
ब्राह्मणों ने पुरोहित से प्रति प्रश्न किया- आचार्य तुम क्या करोगे?" पुरोहित-"मैं तो जहाँ मेरे पुत्र गये हैं, वहीं जाऊंगा, प्रव्रज्या स्वीकार करूंगा।"
ब्राह्मण-- "केवल तुम्हें ही नरक से भीति नहीं है, हमें भी है। हम भी प्रव्रज्या ग्रहण करेंगे।"
पुरोहित ने अपनी अस्सी करोड़ की सम्पत्ति अपनी पत्नी को सौंपी । स्वयं घर से निष्क्रान्त हुआ । योजन भर लम्बा ब्राह्मण-समुदाय साथ था। पुरोहित वहाँ पहुँचा, जहाँ उसके पुत्र थे। हस्तिपाल ने आकाश-स्थित हो, अपने पिता को, ब्राह्मण-समुदाय को धर्म का उपदेश दिया।
पुरोहित-पत्नी द्वारा ब्राह्मणियों के साथ अनुगमन
एक दिन बीता। दूसरे दिन पुरोहित की पत्नी के मन में ऊहापोह होने लगा। वह मन-ही-मन सोचने लगी- मेरे चार पुत्र थे, चारों ही प्रवजित होने चले गए। राज्याभिषेक उन्हें आकृष्ट नहीं कर सका, नहीं रोक सका। मेरे पति ने भी राजपुरोहित का पद छोड़ा, अस्सी करोड़ की सम्पत्ति छोड़ी और उसी मार्ग पर चले गए, जिस पर मेरे पुत्र गये थे। फिर मैं यहाँ क्या करूंगी। मुझे भी उन्हीं का अनुसरण करना चाहिए ! इसी भाव का आख्यान करते हुए वह बोली-"जैसे क्रौञ्च पक्षी आकाश में (क्रमबद्ध, पंक्तिबद्ध) उड़ते जाते हैं, जैसे हिमपात का समय आ जाने पर हंस अपने जाल काट कर चले जाते तरह मेरे चारों पुत्र तथा मेरे पति-मुझे छोड़ कर प्रयाण कर गये। अब मैं क्यों नहीं उनका अनवजन-अनुसरण करूँ?"२
ब्राह्मणी इस प्रकार चिन्तन करते-करते विरक्त हो गई। उसने प्रवृजित होने का निश्चय किया। ब्राह्मणियों को बुलाया। उन से सारी बात कही और पूछा-"तुम अब क्या करोगी? तुम्हारा क्या इरादा है ?"
ब्राह्मणियों ने प्रति प्रश्न किया- "आर्ये ! तुम क्या करोगी।"
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१. साखहि रुक्खो लभते समझें,
पहीनसाखं पन खानुं आहु । पहीनपुत्तस्य ममज्ज होति, वासेठि भिक्खाचरियाय कालो ॥१॥ . २. अधस्मि कोञ्चा व यथा हिमच्चये, तन्तानि जालानि पदालिय हंसा। गच्छन्ति पुत्ता च पती च मय्हं, साई कथं नानुवजे पजानं ॥१६॥
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