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________________ ४०४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ त्याग कर तीन-योजन-विस्तृत अनुयायी वृन्द के साथ अभिनिष्क्रान्त हो गये हैं। गंगा के किनारे चले गये हैं।" अजपाल-"मेरे भाइयों ने जिस राज्य को थक के सदश जानकर त्याग दिया है, मैं अपने मस्तिष्क पर उसका भार ढोये नहीं चलूंगा।" "पुत्र ! तुम अभी अल्पवयस्क हो-छोटे हो। हमारे हाथ का अवलम्बन तुम्हें प्राप्त है। जब तुम्हारी आयु कुछ बड़ी हो जाय, प्रव्रज्या के लायक हो जाय, तब प्रवजित होना।" अजपाल-"आप लोग क्या कह रहे हैं ? क्या आप नहीं जानते, सांसारिक प्राणी बाल्यावस्था में भी मरते हैं और वृद्धावस्था में भी मरते हैं। कौन बाल्यावस्था में मौत के मंड में जायेगा तथा कौन वद्धावस्था में इस सम्बन्ध में किसी के पास कोई प्रम है---कुछ नहीं जानता। मुझे भी अपने मरने के समय का कोई ज्ञान नहीं है; अतएव मैं इसी समय प्रव्रज्या स्वीकार करूंगा। ___“संसार में मैं देखता रहा हूँ, केतकी के फूल के समान विशाल नेत्र युक्त, हासविलास-अनुरंजित एक कुमारिका को भी, जिसने काम-भोगों को बिलकुल नहीं भोगा, प्रथम वय में ही मृत्यु उठा ले जाती है। उसी तरह सत्कुलोत्पन्न, सुन्दर मुखयुक्त, सुन्दर दाँत युक्त, स्वर्ण जैसे वर्ण-दीप्ति युक्त, जिसके मुंह पर दाढ़ी, मूंछ केसर की ज्यों बिखरी है, वैसे तरुण को भी मौत लील जाती हैं ; अत: मैं चाहता हूँ--काम-भोगों का परिवर्जन कर, गृह त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण कर लं। मुझे आप आदेश प्रदान करें।"१ । यह कहकर अजपाल वहाँ से अपने बड़े भाइयों की तरह चल पड़ा। उन्हीं की ज्यों योजन भर लम्बे-लम्बे जन-समुदाय ने उसका अनुगमन किया। वह जहाँ हस्तिपाल आदि अपने बड़े भाई थे, वहाँ गंगा-तट पर पहुँच गया। आकाश में संस्थित हो हस्तिपाल ने उसको भी धर्मोपदेश दिया। धर्म हेतु वहाँ विशाल जन-समुदाय के एकत्र होने की बात कही। अजपाल भी वहीं ठहर गया। पुरोहित द्वारा ब्राह्मण-समुदाय के साथ प्रवज्या-प्रयाण अगले दिन की बात है, पुरोहित सुखासन में पालथी मारे अपने घर में बैठा था। वह चिन्ता-मग्न था। सोच रहा था-मेरे पुत्रों ने प्रव्रज्या स्वीकार कर ली है। अब मैं पुत्र-रहित अकेला घर में हूँ। जीवन में अब मेरा क्या बचा है। मेरा अब यहाँ जीवन निःसार है। मैं भी प्रवज्या ग्रहण करूंगा। वह इस सम्बन्ध में अपनी पत्नी के साथ विचार-विमर्श करने लगा। उसने पत्नी से कहा- "शाखाओं द्वारा ही वृक्ष समृद्ध होता है, वृक्ष कहलाने योग्य होता है। जिसके शाखाएं नहीं रहतीं, वह स्थाणु या ढूंठ कहलाता है, पेड नहीं। मैं पुत्रहीन हो गया १. पस्सा मि वोहं दहरि कुमारि । मत्तूपमं केतकपुप्फनेत्तं । अभुत्व भोगे पढमे वयस्मि, आदाय मच्च वजते कुमारि ॥१३॥ युवा सुजातो सुमुखो सुदस्सनो, सामो कुसुम्भपदिकिण्णमस्सु । हित्वा न कामे पटिगच्छ गेहं, अनुजान मं पब्बजिस्सामि देव ॥१४|| ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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