________________
तत्त्व : आचार : कथानुयोग ]
कथानुयोग — राजा इषुकार : हत्थिपाल जातक
४०३
वह वहाँ से निकल पड़ा। एक योजन लम्बे विस्तार में जनता उसके पीछे निकल पड़ी। वह हस्तिपाल की सन्निधि में पहुँच गया । हस्तिपाल ने आकाश में संस्थित हो, उसे धर्म का उपदेश देते हुए कहा- "तात ! यहाँ बहुत बड़ा जन समुदाय आयेगा, हमको अभी यहीं रहना चाहिए ।" अश्वपाल ने कहा - "बहुत अच्छा, हम ऐसा ही करेंगे।"
तदनन्तर एक समय राजा पुरोहित पूर्ववत् वेश-परिवर्तन कर गोपाल कुमार के निवास स्थान पर गये । उसने भी कुमार हस्तिपाल तथा कुमार अश्वपाल के सदृश उनका आदर-सत्कार किया । राजा और पुरोहित ने पूर्ववत् अपने आगमन का कारण बताया, किन्तु अपने दोनों भाइयों की तरह उसने उनका प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया । उसने उनसे कहा - "बहुत समय से जिसका बैल खोया हो, जैसे वह अपने बैल को खोजता फिरता है, मैं भी प्रव्रज्या को खोजता फिर रहा हूँ ।" बैल खोजने वाले को जैसे बैल के पैरों के निशान दिखाई दे जाते हैं, वैसे ही मुझे वह रास्ता दृष्टिगोचर हो रहा है, महाराज एसुकारी ! मेरा प्रव्रज्या के रूप अर्थ नष्ट हो गया है - खो गया है, मैं उसकी क्यों न गवेषणा करूं ।””
राजा और पुरोहित ने कहा - "तात ! इतनी शीघ्रता मत करो, एक दो दिन तो कम से कम प्रतीक्षा करो, हमारा चित्त तो आश्वस्त हो जाय, तत्पश्चात् प्रव्रज्या स्वीकार करना ।"
गोपाल - " जो कार्य आज करने का है, उसे कल करूंगा, ऐसा कदापि नहीं कहना चाहिए | कुशल कर्म-शुभ कर्म तो आज ही करने चाहिए, तत्काल, अविलम्ब करने चाहिए । उसने इस तथ्य को और स्पष्ट करते हुए कहा - ' "मैं 'अमुक 'कार्य कल करूंगा, अमुक कार्य परसों करूंगा, जो मनुष्य ऐसा विचार करता है, उसका परिहान होता है, पतन होता है। समझना तो यों चाहिये कि अनागत - भविष्य का अस्तित्व ही नहीं है, फिर ऐसा कौन धैर्यशील मनुष्य होगा, जो किसी कुशल- पुण्यात्मक शुभ संकल्प को टाल दे | 2
"ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, रोग, वृद्धावस्था तथा मृत्यु आदि कष्ट मनुष्य के नजदीक आते जाते हैं ।" ऐसा कहकर वह भी अपने पूर्व अभिनिष्क्रान्त भाइयों की तरह जन-समुदाय के साथ वहाँ से निकल पड़ा। जहाँ हस्तिपाल तथा अश्वपाल थे, वहाँ पहुँचा ।
हस्तिपाल ने आकाश में संस्थित होकर पूर्ववत् धर्मोपदेश दिया ।
तदनन्तर अगले दिन राजा और पुरोहित सबसे छोटे कुमार अजपाल के पास पूर्ववत्
उसी वेश में पहुँचे। उसने उनके आने पर बड़ा हर्ष प्रकट किया। राजा और पुरोहित ने अपने
आने का कारण बताया, उससे राज छत्र धारण करने का अनुरोध किया ।
कुमार अजपाल ने पूछा - "मेरे तीनों बड़े भाई कहाँ रहते हैं ?"
उन्होंने कहा - " वे अपने लिए राज्य न चाहते हुए उज्ज्वल-धवल राजछत्र का परि
१. गवं च नट्ठ पुरिसो यथा वने, परियेसति राज अपस्समानो । एवं नट्ठी एसुकारी मं अत्थो,
सोहं कथं न गवेसेय्य राज ॥११॥
२. हिय्यो ति हिय्योति पोसो परेति ( परिहायति ),
अनागतं नेतं अत्थीति लत्वा,
उप्पन्नछन्दं को पनुदेय्य धीरो ॥ १२ ॥
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org