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४०२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ राजा और पुरोहित ने ऋषि-वेष धारण किया। वे दोनों अश्वपाल के घर के दरवाजे पर पहुँचे । ज्योंही अश्वपाल ने उनको देखा, वह बहत प्रसन्न हआ और उसने इस्तिपाल की ज्यों उनके प्रति विनय तथा आदर प्रकट करते हुए बड़ा शिष्ट व्यवहार किया। ऋषि-वेश घर राजा और पुरोहित ने जैसे हस्तिपाल को उसके पास अपने आने का कारण बतलाया था, अश्वपाल को भी वैसे ही बताया।
__ अश्वपाल बोला-"मेरे ज्येष्ठ भ्राता कुमार हस्तिपाल के रहते, उनके पूर्व मैं राज्याभिषेक का अधिकारी कैसे हैं ?"
राजा और पुरोहित ने कहा--"तात ! तुम्हारा ज्येष्ठ बन्धु राज्य नहीं चाहता, वह प्रवजित होना चाहता है। अपना ऐसा भाव व्यक्त करके घर से चला गया है।"
अश्वपाल-'मेरा बड़ा भाई इस समय कहाँ पर है ?" उन्होंने कहा-"गंगा के तट पर।"
अश्वपाल-"मेरे बड़े भाई ने जिस राज्य-वैभव को थूक की ज्यों छोड़ दिया है, मुझे उसकी कोई आवश्यकता नहीं है, न जरा भी उसके प्रति मन में आकांक्षा का भाव ही है। सांसारिक काम-भोग वस्तुतः क्लेश हैं, परिणाम-विरस हैं। अज्ञ किंवा अल्पप्रज्ञ व्यक्ति ही काम-भाव-मूलक क्लेश का परित्याग नहीं कर सकते, किन्तु, मैं वैसा करने में अपने आप को समर्थ पाता हूँ। मैं उनका परित्याग करूंगा।"
___ इस प्रकार अपना निश्चय प्रकट कर अश्वपाल ने राजा और पुरोहित को उद्दिष्ट कर कहा-“सांसारिक काम-भोग-कर्दम जैसे हैं; वे दलदल के सदृश हैं, बड़े लुभावने हैं; इसलिए उन्हें लांघ पाना बड़ा कठिन है-वे बड़े दुस्तर हैं। वे मृत्युमुखोपम है--मौत बनकर प्राणियों को निगल जाते हैं । जो प्राणी इस पंक में, दलदल में व्यासक्त हैं--फंसे हैं, वे हीन सत्त्व-दुर्बलता (व्यक्ति) इस दलदल को लांघ नहीं पाते, इसके पार पहुँच नहीं सकते।
"मैंने अपने पूर्ववर्ती जन्म में, लगता है, रोद्र कर्म-क्रोधादि-प्रसूत कठोर कर्म किये हैं, जिनका इस समय मैं फल-भोग कर रहा हूँ। स्वयं उनमें अपने-आपको आबद्ध पाता हूँ, उनसे मैं छूट नहीं पा रहा हूँ। ऐसे कर्मों में रहते मोक्ष प्राप्त नहीं होता। मैं अब कर्मेन्द्रियों का परिरक्षण करूंगा-संगोपन करूंगा, उन्हें भोग-विमुख बनाऊंगा, जिससे पुनः मेरे द्वारा रौद्र कर्म न हों।"
___ अश्वपाल बोला-'आपके साथ वार्तालाप करते-करते जितना समय गुजरता है, रोग, बुढ़ापा तथा मृत्यु समीप आते जा रहे हैं। इसलिए मैं अपने बड़े भाई हस्तिपाल के पास ही जाऊंगा।"
१. पंको च कामा पलियो च कामा ।
मनोहरा दुत्तरा मच्चुधेय्या। एतस्मिं पंके पलिपे व्यसा , हीनत्तरूपा न तरन्ति पारं॥६॥ अयं पुरे लुइं अकासि कम्म, स्वायं गही तो न हि मोक्ख इतो मे, ओलंधिया नं परिरक्खिस्सामि । मायं पुनः लुइं अकासि कम्मं ॥१०॥
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