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तस्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा ईषुकार : हस्थिपाल जातक ४०१
इस पर ब्राह्मण-कुमार बोला- "परमोत्कृष्ट पराक्रमशील राजन् ! जिसका मरण के साथ सख्य-सखा-भाव हो, बुढ़ापे के साथ दोस्ती हो, जो यह समझे बैठा हो कि मैं कभी नहीं मरूंगा, ऐसे ही व्यक्ति के सम्बन्ध में रोग-रहित एवं शतायु होने की बात कही जा सकती है। जैसे कोई पुरुष नौकारूढ़ हो, जल में आगे बढ़ता है तो वह नौका उसको तट पर पहुँचा ही देती है, उसी प्रकार व्याधि तथा वृद्धावस्था मनुष्य को मौत तक ले ही जाती है।"
कुमार ने इस प्रकार प्राणि-जगत की नश्वरता, तुच्छता प्रकट करते हुए कहा"राजन् ! जैसे-जैसे मैं आपके साथ बात कर रहा हूँ, क्षण-क्षण कर काल बीत रहा है, वृद्धता और रुग्णता समीप आती जा रही हैं। यह क्रम अनवरत चलता जाता है, आप इस जगत् में प्रमाद-रहित बनकर रहें, जागरूक भाव से रहें।"
हस्तिपाल द्वारा निष्क्रमण
उपर्युक्त रूप में अपने विचार प्रकट कर कुमार हस्तिपाल ने राजा को तथा अपने पिता को प्रणाम कर अपने परिचारकों को साथ लिया, वाराणसी-राज्य को छोड़ दिया, प्रव्रज्या-ग्रहण करने का लक्ष्य लिये वहां से निकल पड़ा। जन-समुदाय इससे प्रभावित हुआ। वह यह सोचते हुए कि कितनी गौरवशील तथा सुन्दर प्रव्रज्या यह होगी, कुमार के साथ-साथ चल पड़ा। योजन भर के विस्तार में लोग ही लोग हो गये। एक जुलूस बन गया। कुमार हस्तिपाल जन-समुदाय के साथ गंगा के किनारे पहुँचा। गंगा के जल का अवलोकन किया. योग क्रिया का अभ्यास साधा, ध्यान.प्राप्ति की। मन में चिन्तन आया-ऐसी संभावना प्रतीत होती है कि यहाँ बहुत जन-समुदाय एकत्र हो जायेगा। मेरे कनिष्ठ बन्धु, जननी, जनक, राजा एवं रानी - सभी अपने परिजन-वृन्द सहित प्रव्रज्या ग्रहण कर लेंगे; इसलिए उन सब के पहुँच जाने तक मुझे यहीं रहना चाहिये। तदनुसार वह वहाँ स्थित लोगों को उपदेश देता हुआ वहीं रहने लगा।
अनुजवृन्द एवं जन-समुदाय द्वारा अनुसरण
राजा तथा पुरोहित मिले, परस्पर विचार-विमर्श करने लगे-ज्येष्ठ कुमार हस्तिपाल राज्य का परित्याग कर प्रव्रज्या स्वीकार करने का लक्ष्य लिये गंगा के किनारे पर रह रहा है। अनेक मनुष्य, जो उससे प्रभावित हैं, उसकी सन्निधी में वहीं रह रहे हैं। ऐसी स्थिति में हमें दूसरे कुमार अश्वपाल का राज्याभिषेक करना चाहिये। अच्छा हो, पहले हम उसकी परीक्षा कर लें।
१. यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज ! जराय मेत्ती नरविरियसेट्ठ ! यो चापि जान मरिस्सं कदाचि, पस्सेय्यं तं वस्ससतं अरोगं ॥६॥ यथापि नावं पुरिसोदकम्हि, एरेति चे नं उपनेति तीरं। एवम्पि व्याधी सततं जरा च, उपने न्ति मच्चं वसं अन्तकस्स ॥८॥
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