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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ इस पर पुरोहित ने उससे कहा - "तात ! तुमने हमें क्या समझा है ? क्या समझ कर ऐसा बोल रहे हो ? " हस्तिपाल - "आप हिमालय पर वास करने वाले ऋषिगण हैं, यह समझ कर मैं इस प्रकार बोल रहा हूँ ।" पुरोहित - "पुत्र ! जैसा तुम समझ रहे हो, वैसा नहीं है । हम ऋषि नहीं हैं। मैं तुम्हारा पिता हूँ और यह राजा एसुकारी हैं । " हस्तिपाल - - "फिर आपने ऐसा वेश क्यों बनाया ?" पुरोहित - " तुम्हारी परीक्षा लेने के अभिप्राय से । " हस्तिपाल - "मेरी क्या परीक्षा लेना चाहते हैं ? ' ४०० पुरोहित - "यदि हमें देखकर - हमारी अवस्था का आकलन कर तुम प्रव्रज्या ग्रहण न करो तो हम तुम्हारा राज्याभिषेक करें, इस प्रयोजन से हम यहाँ आये हैं ।' "1 हस्तिपाल - "पितृवर ! मेरी राज्य लेने की इच्छा नहीं है, मैं प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा ।" इस पर पुरोहित ने यह कहते हुए कि बेटा ! अभी प्रव्रजित होने का समय नहीं है, उसे उपदिष्ट किया — "वेदों का अध्ययन कर धन का अर्जन कर, गन्ध, रस आदि इन्द्रियभोगों को भोगकर, पुत्रों को अपने घर में प्रतिष्ठापित कर – पारिवारिक दायित्व, संपत्ति आदि सौंपकर अरण्य में जाना - प्रव्रजित होना उत्तम है । वैसा करने वाला मुनि प्रशस्त है— प्रशंसनीय है । " यह सुनकर हस्तिपाल बोला - "न वेद सत्य हैं-न मात्र वेदाध्ययन से जीवन का सार सघता है और न धनार्जन से ही यह होता है । पुत्र प्राप्त कर लेने पर वृद्धावस्था आदि क्लेश मिट नहीं जाते । सन्त जन गन्ध, रस प्रमृति इन्द्रिय-भोगों को मूर्च्छा कहते हैं ये मोहासक्ति के रूप हैं । अपने द्वारा आचीर्ण कर्मों का फल मनुष्य को भोगना होता है ।' १२ इस पर राजा बोला - "तुमने जो कहा कि अपने द्वारा आचीर्ण कर्मों का फल प्राप्त होता है – कर्म - फल भोगना पड़ता है, यह सत्य है । हम इसे मानते हैं । पर, जरा यह भी तो देखो, तुम्हारे माता-पिता बूढ़े हो गये हैं । वे तुम्हें शतायु देखें, नीरोग देखें। तुम उनकी आंखों के सामने रहो। यह भी तो अपेक्षित है । "३ १. आधिच्च वेदे परियेस वित्तं, पुत्ते गेहे तात पतित्वा । गन्धे रसे पच्चनुभुत्व सब्बं, अरचं साधु मुनि सो २. वेदा न सच्चा न च न पुत्तलाभेन जरं गन्धे रसे मुच्चनं सकम्मुना होति पत्थो ||४|| वित्तलाभो, विहन्ति । आहु सन्तो, फलूपपत्ति ||५|| ३. अद्धा हि सच्चं वचनं तवेतं, सक्कमुना होति फलूपपत्ति | जिण्णा च माता पितरो च तवयिमे, पस्सेथ्यु तं वस्सं सतं अरोगं ॥ ६॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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