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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा इषुकार : हस्थिपाल जातक ३६६ चारों स्थानों पर क्रमशः बढ़ने लगे। पूर्व-संस्कार वश वे चारों ही बड़े सौभाग्यशाली; द्युतिशाली हुए। जैसा वृक्ष-देवता ने कहा था, पुरोहित को उनके प्रव्रजित होने का भय था ही, प्रव्रज्या का प्रसग ही न बने ; इसलिए उसने राज्य में जितने भी प्रव्रजित थे, सबको राज्य सीमा से बाहर निकलवा दिया। फलतः समग्र काशी-जनपद में एक भी प्रवजित नहीं रह पाया। चारों पुरोहित-कुमारों का व्यवहार बड़ा कठोर-उद्दण्ड था । शायद यह इसलिए रहा हो कि उन्हें सब अवाञ्छित समझने लगें और उन्हें प्रवजित होने का अवसर मिल सके। वे जिस किसी दिशा में जाते, वहाँ किसी को कोई उपहार-मेंट लिये जाते देखते तो लूट लेते। हस्तिपाल का पिता के साथ धर्म-संवाद हस्तिपाल सोलह वर्ष का हो गया। वह बड़ा बलशाली था। एक दिन राजा तथा पुरोहित परस्पर विचार-विमर्श करने लगे-कुमार हस्तिपाल बड़ा और समर्थ हो गया है, अच्छा हो, उसे राज्याभिषिक्त कर दिया जाए। फिर उन्होंने सोचा-इसका एक प्रा रिणाम भी हो सकता है। संभव है, राज्याभिषेक के बाद... अधिकार सम्पन्न हो जाने पर कुमार की उद्दण्डता और बढ़ जाए । उस द्वारा निषिद्ध न रहने पर, प्रव्रजित राज्य में आने लगें। उन्हें देखकर वह प्रव्रज्या ग्रहण कर ले। कुमार के प्रव्रजित होने पर संभव है, जनता उत्तेजित हो जाए, उबल पड़े; इसलिए इस पहलू पर हम जरा और चिन्तन कर लें, फिर कुमार का अभिषेक करें। राजा और पुरोहित के मन में आया-कुमार की परीक्षा ली जाए। उन्होंने ऋषिवेश धारण किया । भिक्षा हेतु बाहर निकले। धूमते-घूमते वे कुमार हस्तिपाल के आवासस्थान पर आये। जब हस्तिपाल ने उनको देखा, वह बहुत प्रसन्न हुआ, परितुष्ट हुआ। उनके पास गया, उन्हें प्रणाम किया और बोला----"मैं दीर्घकाल बाद बड़ी-बड़ी सघन जटाओं से युक्त, मलिन दन्तयुक्त, मस्तक पर भस्म लगाये, देवोपम ब्राह्मणों को देख रहा हूँ। मैं चिर कालान्तर धर्मराधनरत, काषाय-वस्त्रधारी वल्कल-चीवर-यूक्त ब्राह्मणों के दर्शन कर रहा हूँ। "ब्राह्मण देवताओ ! मैं आपकी सेवा में आसन एवं उदक-पादोदक प्रस्तुत कर रहा हूँ, स्वीकार करें । मैं आपको ये उत्तम वस्तुएं भेंट कर रहा है, कृपया ग्रहण करें।" हस्तिपाल ने राजा और पुरोहित- दोनों को, जो ऋषि-वेश में थे, क्रमशः उपर्युक्त निवेदन किया। १. चिरस्स वत पस्साम, ब्राह्मणं देववण्णिनं । महाजट भारधरं, पंकदंतं रजस्सिरं ॥१॥ चिरस्स वत पस्साम, इसि धम्मगुणं रतं । कासायवत्थवसन' वाकचीर पटिच्छद ॥२॥ आसनं उदकं पज्जं पटिगण्हातु नो भवं। अग्धे भवन्तं पुच्छाम, अग्धं कुरुतु नो भवं ॥३॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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