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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-राजा इषुकार : हस्थिपाल जातक ३६७ बरगद के पेड़ पर स्थित वृक्ष-देवता से मैंने पुत्र-प्रदान करने की प्रार्थना की, उसी ने मुझे ये पुत्र प्रदान किये।" वृक्ष देवता : अनुरोध : मूलोच्छेद की धमकी
यह सुनकर पुरोहित ने उसे वहाँ से रवाना किया। वह अपने रथ से उतरा । बरगद के वृक्ष के नीचे गया। बरगद की एक डाली को पकड़ा, उसे हिलाया और कहा"वृक्षवासी देव पुत्र ! राजा तुम्हारा कितना सम्मान करता है, तुम्हें क्या नहीं देता । वह प्रतिवर्ष तुम्हारे लिए एक सहस्र मुद्राएँ खर्च करता है, तुम्हें बलि देता है। राजा पुत्र के अभाव में तरस रहा है । तुम उसे पुत्र नहीं देते। इस दरिद्रा को तुमने सात पुत्र दे दिए, इसने तुम्हारा ऐसा कौन-सा उपकार किया है। सुन लो एक बात, यदि तुम मेरे राजा को पुत्र का वरदान नहीं दोगे, तो आज से एक सप्ताह बाद मैं तुम्हारा मूलोच्छेद करवा दूंगातुम्हें जड़ से उखड़वा दूंगा, तुम्हारे खण्ड-खण्ड करवा दूंगा।" वह पुरोहित वृक्षवासी देव को इस प्रकार धमका कर चला गया।
पुरोहित निरन्तर छः दिन तक उस वृक्ष के पास आता रहा और उसी प्रकार धमकाता रहा। छठे दिन उसने वृक्ष की डाली को पकड़ कर कहा- 'वृक्षदेव ! छः दिन हो गये हैं । अब केवल एक रात बाकी है। यदि मेरे राजा को पुत्र का वर नहीं दोगे तो कल मैं तुम्हारा अस्तित्व मिटा दूंगा।" ब्राह्मण को चार पुत्रों का वरदान
वृक्ष देवता ने, जो पिछले छः दिन से पुरोहित की धमकी सुन रहा था, उसके कथन पर गहराई से विचार किया, उसका अभिप्राय समझा। उसने मन-ही-मन कहा-यदि इस ब्राह्मण के अनुरोध पर पुत्र नहीं दूंगा, तो निश्चय ही यह मेरा ध्वस्त कर देगा, इसे पुत्र देने की कैसे व्यवस्था की जाए । यह सोचते हुए वह अपने चारों महाराजाओं के पास गया। उनसे सारी बात निवेदित की। महाजाराओं ने कहा-यह संभव नहीं है, हम पुत्र नहीं दे सकते। तब वह वृक्ष-देवता अठ्ठाईस यक्ष-सेनापतियों के यहाँ गया। उनसे भी वैसा ही निवेदन किया। उन्होंने पुत्र का वरदान देना स्वीकार नहीं किया । तदनन्तर वृक्ष देवता देवेन्द्र, देवराज शक्र की सेवा में उपस्थित हुआ। देवेन्द्र के समक्ष अपना निवेदन प्रस्तुत किया।
देवराज शक्र ने वृक्ष-देवता के अनुरोध पर गौर किया-इसकी मांग के अनुरूप पुत्र प्राप्त होने का योग है अथवा नहीं। उसने चार देव पुत्रों को स्मरण किया। वे देवपुत्र पूर्वजन्म में वाराणसी में तन्तुवाय थे। तान्तुवायिक जीवन में उन्होंने जो कुछ अजित किया, उसके उन्होंने पांच भाग किये। चार भागों का स्वयं उपयोग किया, खाने-पीने आदि में खरचा, एक भाग का उन्होंने दान में उपयोग किया। वहाँ अपना आयुष्य पूर्ण कर वे त्रायस्त्रिश-भवन में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहां से च्युत होकर वे याम-भवन में उत्पन्न हुए । इस प्रकार क्रमशः ऊपर नीचे वे छः देवलोकों में उत्पन्न होते रहे, देव-सुख, देव-ऋद्धि, देव-वैभव का उपभोग करते रहे। तब त्रायस्त्रिश-भवन का काल समाप्त कर उनके याम-भवन में जाने का समय था, शक्र उनके पास पहुँचा, उनसे बोला-"मित्र-वृन्द ! वाराणसी के राजा एसुकारी के पुत्र नहीं है। तुम उसकी रानी के गर्भ से पुत्र-रूप में जन्म ग्रहण करो, ऐसा मैं चाहता हूं।" देव पुत्र बोले-"देव! जैसा आप चाहते हैं, हम करेंगे, किन्तु, राजकुल में
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