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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-राजा इषुकार : हत्थिपाल जातक ३६५ जगत्, समग्र धन आपका हो जाए, तो भी आपके लिए पर्याप्त नहीं है आप उसे येथेष्ट' नहीं मानेंगे। यह धन आपका त्राणरक्षण नहीं कर सकेगा। राजन् ! इन मनोरम काम-भोगों को छोड़कर कभी-न-कभी तो निश्चय ही मरना होगा । वास्तव में धर्म ही सच्चा त्राणरक्षण या शरण है। उसके अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है।
__'राजन ! जैसे पिंजरे में स्थित पक्षिणी सुखी नहीं होती, उसी प्रकार मुझे भी इस संसार-रूपी पिंजरे में सुख प्रतीत नहीं होता; अतः मैं ममता के ताने तोड़कर, अकिञ्चन होकर-धन, वैभव, राज्य आदि परिग्रह से विरत होकर ऋजुकृत-सरल, उत्तम कर्ममय, वासना-वजित संयम-पथ स्वीकार करना चाहती हूँ।
"वन में दावाग्नि के लग जाने पर उसमें जलते हुए जीवों को देखकर दूसरे जीव राग-द्वेष-वश प्रसन्न होते हैं, उसी प्रकार सांसारिक सुखों में मूच्छित बने-आसक्त बने, अपने आपको भूलकर भोगों में बेभान बने हम देख नहीं पाते कि यह जगत् राग-द्वेषात्मक अग्नि से जला जा रहा है । जो समझदार होते हैं, वे मुक्त सुख-भोगों को छोड़कर, हल के होकर प्रसन्नतापूर्वक प्रवजित हो आते हैं । वे पक्षी की ज्यों या वायु के सदृश अप्रतिबन्धविहार करते हैं। जिन प्राप्त काम-भोगों से हम बँधे हैं, वे स्थिर नहीं हैं । इसलिए अन्य विरक्त आत्माओं ने-भग आदि ने इन अस्थिर, अशाश्वत काम-भोगों का परित्याग कर संयम ग्रहण किया, उसी प्रकार हम भी करें।
“एक पक्षी (गीध) के मुख में मांस का टुकड़ा देखकर दूसरा पक्षी उस पर झपटना चाहता है, उस पर आक्रमण करना चाहता है, किन्तु, जब वह पक्षी मांस के टुकड़े का परित्याग कर देता है तो उस पर कोई नहीं झपटता । वह निरापद् एवं सुखी हो जाता है। मांस के टुकड़े के सदृश समग्र वैभव, भोग आदि का परिवर्जन कर, आसक्तिशून्य होकर मैं संयम ग्रहण करूंगी, निराकाङ्क्ष भाव से विचरण करूंगी।
"पक्षी की उपर्युक्त उपमा को समझ कर, काम-भोगों को आवागमन-जन्म-मरण, का कारण जान कर, सशंक होकर उन्हें उसी प्रकार छोड़ दें, जैसे ग़रुड़ के समक्ष सशंक होता हुआ सांप धीरे से उस स्थान को छोड़ता हुआ चला जाता है । जैसे हाथी बन्धन तोड़कर अपने स्थान पर पहुँच जाता है, महाराज ! वैसे ही संयम-बल द्वारा आत्मा अपने बन्धन-कर्मबन्धन तोड़कर अपने स्थान-मोक्ष, सिद्धत्व या परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेती है। ऐसा मैंने प्रबुद्ध जनों से सुना है।" राजा और रानी साधना की दिशा में
इस प्रकार रानी तथा उस द्वारा अनप्रेरित राजा दुर्जय-कठिनाई से जीते जा सकने योग्य काम-भोग, विशाल राज्य एवं समग्र परिग्रह का परित्याग कर निविषय-आसक्तिरहित, ममतारहित हो गये। उन्होंने : धर्म-तत्त्व को भलीभाँति समझ लिया । उत्कृष्ट सुखमोगों का परित्याग कर उन्होंने सर्वज्ञ-प्ररूपित साधना-पथ अत्यक्ष तीव्र परिणाम तथा आत्मबल के साथ स्वीकर किय
इस प्रकार वे सब क्रमशः प्रतिबुद्ध होकर धर्म-परायण बने। जन्म-मरण के भय से वे उद्विग्न थे; अतः, तत्प्रसूत दु:खों को सर्वथा विनष्ट करने में तत्पर हुए।
वे वीतराग प्रमुक धर्म-शासन में अनित्य आदि भावनाओं से.भावित होते हुए थोड़े
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