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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-राजा इषुकार : हत्थिपाल जातक
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स्वीकार तो कर लिया था, पर, वह नहीं चाहता था कि उसके पुत्र गृहस्थ का परित्याग कर साधु-जीवन स्वीकार करें; इसलिए उसने मन-ही-मन निश्चय किया कि उसके पुत्र दीक्षित न हों, इसमें वह पूरी सावधानी बरतता रहे। उसने अपने पुत्रों को साधुओं के सम्पर्क से सदा पृथक् रखने का सोचा। उसने विचार किया कि नगर में तो साधुओं का आवागमन प्रायः रहता ही है। उसे नगर के बाहर किसी एकान्तवर्ती छोटे गाँव में निवास करना चाहिए। तदनुसार उसने कर्पट नामक ग्राम में निवास करना प्रारम्भ किया। उसने अपने दोनों पुत्रों को शिक्षा दी कि तुम जैन साधुओं के सम्पर्क में कभी मत आना। उनकी पहचान यह हैवे भूमि को देख-देखकर चलते हैं, अपने हाथ में रजोहरण रखते हैं। वस्त्र की एक झोली रखते हैं। झोली में शस्त्र होते हैं। वे बालकों को पकड़ लेते हैं और उनकी हत्या कर डालते हैं। इसलिए सदैव उनसे दूर रहना चाहिए। पिता द्वारा यों शिक्षा दिये जाने पर उन दोनों बालकों के मन में जैन साधुओं के प्रति भय व्याप्त हो गया। पुरोहित भृगु का अभिप्राय यह था कि बच्चों के मन में जैन साधुओं के प्रति एक ऐसा आतंक व्याप्त हो जाये कि वे कभी उनके पास आने का सोच ही न सकें, जिससे दीक्षित होने का कभी प्रसंग ही न आए।
मुनि दर्शन : वैराग्य
___ एक दिन की बात है, वे दोनों बालक खेलने के लिए गाँव से बाहर गये हुए थे। संयोग ऐसा बना, दो जैन साधु जो नगर के बाहर मार्ग भूल गये थे, उसी गांव में आ पहुंचे। भृगु पुरोहित ने उनको भिक्षा दी और निवेदन किया कि इस गांव के निवासी जैन साधुओं से परिचित नहीं है, उनसे बहुत द्वेष करते हैं। गांव के बालक, जिनमें मेरे पुत्र भी शामिल हैं, साधुओं की हँसी उड़ाते हैं; अतः आप कृपया गांव के बाहर जाकर आहार-पानी कीजिये, जिससे आपके प्रति किसी को भी अविनीति और असभ्य व्यवहार करने का मौका न मिल पाये।
साधुओं ने भृगु पुरोहित का कथन सुना। तदनुसार वे गाँव से बाहर निकल गये तथा संयोगवश उधर ही चलने लगे, जिधर भृगु पुरोहित के पुत्र खेलने के लिए गये हुए थे। पुरोहित के पुत्रों की दृष्टि साधुओं पर पड़ी। उनके पिता ने जैसो वेशभूषा, लिबास आदि बतलाए थे, तदनुसार उन्हें वे जैन साधु प्रतीत हुए। बालकों का हृदय भय से कांप उठा। वे दोनों बालक आगे भाग छूटे । एक विशाल वृक्ष दिखाई दिया। फौरन उस पर चढ़ गये। साधु सहज भाव से चले आ रहे थे। उन्हें बालकों की क्रिया-प्रक्रिया का कुछ भान नहीं था। उन्होंने उसी वृक्ष के नीचे प्रासुक-जीवरहित-शुद्ध स्थान देखा, रजोहरण द्वारा उसे परिमाजित किया, जिससे कोई सूक्ष्म जीव असावधानी से हताहत न हो जाए। ऐसा कर उन्होंने यथाविधि आहार किया। पुरोहित के दोनों बालक वृक्ष पर से यह सब देख रहे थे। वे सोचने लगे- इन साधुओं में तो वे बातें नहीं मिलतीं, जो हमारे पिताश्री कहते थे। इनकी झोली में कोई भी हथियार नहीं है। इनके पात्रों में मांस जैसे अखाद्य, अपवित्र पदार्थ नहीं हैं। उनमें तो वही खाद्य है, जो अक्सर हमारे घरों में बनता है। यों सारी स्थिति का साक्षात्कार हो जाने से उन बालकों के मन का सारा भय मिट गया। इतना ही नहीं, सूक्ष्म ऊहापोह करने के अध्यवसाय से उनको अपने पूर्व-जन्म का ज्ञान उत्पन्न हो गया। उनमें वैराग्य भाव जाग उठा। वे पेड़ से नीचे उतरे । उन्होंने मुनि-द्वय को यथाविधि सविनय वन्द्रन-नमन किया। उनको अपने समग्र वृत्तांत से अवगत कराया। साथ-ही-साथ प्रार्थना की कि आप कृपा कर कुछ काल-पर्यन्त इषुकार नगर में ही विराजें। हमारा विचार अपने
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