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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
माता-पिता को सहमत कर, उनकी आज्ञा प्राप्त कर आपके पास मुनिवृत्ति स्वीकार करने का - प्रव्रजित होने का है; क्योंकि मुनिवृत्ति या संयम धर्म द्वारा ही मोक्ष पद प्राप्त किया जा सकता है। मुनिवृत्ति ही आत्मा के अभ्युत्थान का एकमात्र साधन है । वह बाहरी चिह्नों के साथ भी हो सकती है, आन्तरिक भावों में भी हो सकती है । मूलतः वृत्ति या वर्तन में मुनित्व आना चाहिए, जिसके लिए हम चिरकाल से उत्कंठा लिए हुए हैं ।
पुरोहित पुत्रों का कथन सुनकर मुनिद्वय ने कहा - " जिससे तुम्हें सुख हो, आत्म शांति हो, वैसा ही करो । किन्तु, यह सदा ध्यान रखने की बात है, धार्मिक कार्यों के अनुष्ठानों में कभी विलम्ब, प्रमाद नहीं करना चाहिए।"
पिता एवं पुत्रों के बीच तात्विक वार्तालाप
दोनों बालकों ने मुनि द्वय को वन्दन नमन किया। अपने घर आए । घर आकर अपने माता-पिता से प्रव्रज्या की स्वीकृति प्रदान करने का अनुरोध किया। इस सन्दर्भ में पिता-पुत्र में बड़ा रोचक, तात्त्विक वार्तालाप हुआ ।
पुत्र बोले -- "पितृवर ! यह जीवन अशाश्वत है, अत्यधिक विघ्नपूर्ण है । आयुष्य सीमित है । इसमें हमें गृहस्थ जीवन में कोई रस नहीं है । हम आपसे आज्ञा चाहते हैं, हम मुनि-वृत्ति स्वीकार करें।"
जब उनके पिता ने यह सुना तो वह मुनि जीवन की ओर आकृष्ट अपने पुत्रों को तप तथा संयम में विघ्न उत्पन्न करने वाले वचन बोलने लगा । उसने कहा- "वेदवेत्ता ब्राह्मण बतलाते हैं कि पुत्र रहित मनुष्यों की उत्तम गति नहीं होती; अतः पुत्रों ! वेदों का अध्ययन कर, ब्राह्मणों को भोजन कराकर, स्त्रियों के साथ सांसारिक सुख भोगकर, पुत्रों को घर का दायित्व सौंपकर फिर वनवासी प्रशस्त मुनि बनना । "
भृगु पुरोहित बहिरात्मभाव रूप ईंधन से सुलगती हुई, मोहरूप वायु से बढ़ती हुई, शोकरूपी अग्नि से सन्तप्त होता हुआ अपने पुत्रों को धन तथा काम भोग का आमन्त्रण देने लगा, उनसे गृहस्थ में रहने का अनुरोध करने लगा ।
इस पर उसके पुत्रों ने कहा – “पिताश्री ! वेद पढ़ लेना मात्र त्राण नहीं है । ब्राह्मणों को भोजन करा देने से आत्म-ज्योति प्रज्ज्वलित नहीं होती, अंधकार ही रहता है । स्त्री और पुत्र भी त्राण नहीं बनते । काम भोग क्षण भर के लिए सुख देते हैं, दीर्घ काल तक अत्यधिक दु:ख देते हैं । वास्तव में वे सुखमय नहीं हैं । वे संसार को बढ़ाते हैं, मोक्ष में बाधक हैं, अनर्थों की खान हैं । जो पुरुष काम-भोगों से निवृत्त नहीं होते, वे रात-दिन परितप्त होते हुए भटकते हैं । औरों के लिए- पारिवारिक जनों के लिए अशुभ प्रवृत्ति द्वारा धन संग्रह करते हुए वे बूढ़े हो जाते हैं । अन्ततः मर जाते हैं, मेरे पास यह है, यह नहीं है, मैंने यह कर लिया है, इसे नहीं किया है, इसे करना है— इस प्रकार आकुलतापूर्वक आसक्तिपूर्ण वाणी बोलने वाले व्यक्ति के प्राणों को काल हर लेता है । ऐसी स्थिति में प्रमाद कैसे किया जाए ।"
पुरोहित ने कहा - "प्रचुर धन तथा स्त्रियों के लिए लोग तपश्चरण करते हैं। वे यहाँ पर्याप्त मात्रा में हैं। परिवार भी भरा-पूरा है। काम-भोगों के साधन, सामग्री यथेष्ट है । फिर तुम संयम ग्रहण कर साधु क्यों बनना चाहते हो ?"
कुमारों ने अपने पिता से कहा- "धर्म के परिपालन में धन, स्वजन तथा काम
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