SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 450
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड :३ राजा इषुकार सागरचन्द्र मुनि के पास चार ग्वालों ने प्रव्रज्या स्वीकार की। उनमें से दो चित्त एवं संभूति के रूप में उत्पन्न हुए। बाकी के दो मुनियों का इतिवृत्त इस प्रकार हैछः वणिक पुत्रों द्वारा दीक्षा : संयम-तारतम्य उन दोनों ने संयम-धर्म का विशुद्ध रूप में परिपालन किया। वे यथाकाल अपना आयुष्य पूर्ण कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। स्वर्ग के आयुष्य-बन्ध के अनुरूप उन्होंने वहां दिव्य सुखों का उपभोग किया। वहाँ का काल पूर्ण कर वे पृथ्वी पर क्षितिप्रतिष्ठ नामक नगर में वहाँ के प्रमुख श्रेष्ठी के घर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुए। वे क्रमश: बड़े हुए, युवा हुए। उनकी दूसरे चार वणिक पुत्रों के साथ मित्रता हुई। वे छःओं मित्र साथ-साथ रहते, सभी कार्यों में सहभागी होते । अन्त में उन छःओं के मन में वैराग्य-भाव जागा। उन्होंने दीक्षा स्वीकार की। उन छःओं में चार निष्कपट-निर्मल भाव से संयम की आराधाना, अनुसरण करते थे। पर दो का संयम, आचार छलपूर्ण था। वे संयम का, व्रतों का पालन तो पूर्णतया करते, पर, मन में कपट रहता। अग्रिम भव - छःओं यथासमय कालधर्म प्राप्त कर प्रथम स्वर्ग के नलिनीगुल्म नामक विमान में देवों के रूप में उत्पन्न हुए। उनमें से चार पुरुष देवों के रूप में तथा वे दो, जो कपट प्रभावित थे, स्त्री-देवों के रूप में देवियों के रूप में जन्मे। देव-आयुष्य को भोगकर उनमें से चार, जो दो ग्वालों के जीवों से भिन्न थे, इषुकार नगर में उत्पन्न हुए। उनमें से एक इषकार संज्ञक राजा हुआ, दूसरा कमलावती रानी के रूप में आया, तीसरा भृगु नामक पुरोहित के रूप में अवतीर्ण हुआ तथा चौथा भृगु पुरोहित की यशा नामक पत्नी के रूप में आया। भृगु पुरोहित भगु पुरोहित के कोई पुत्र नहीं था, जिससे वह अत्यन्त शोक-मग्न रहता था। उधर स्वर्ग में उन दो ग्वालों के जीवों ने, जो देव-रूप में थे, अवधि-ज्ञान का उपयोग किया और जाना कि उनका आयुष्य मात्र छः मास अवशिष्ट है । आगे जहाँ उनको उत्पन्न होना था, वह स्थान भी उन्होंने अवनि-ज्ञान द्वारा देखा। वे दोनों देव विकुर्वणा द्वारा जैन भिक्षु का रूप धारण कर भृगु पुरोहित के यहां आये । धर्म-कथा की। पुरोहित ने मुनियों से पूछा कि वह निष्पुत्र है। क्या उसके पुत्र का योग है ? मुनियों ने कहा -"पुरोहित ! तुम्हारे दो पुत्र होंगे। वे धार्मिक संस्कार-युक्त होंगे, संयम ग्रहण करेंगे। वे जब दीक्षा स्वीकार करना चाहें तो तुम उनके मार्ग में बाधा न डालना, विध्न मत करना । तुम भी धर्माराधना का अभ्यास करते रहना।" भृगु पुरोहित ने उन दोनों मुनियों की बातें सहर्ष स्वीकार की। वे दोनों जैन भिक्षु वेषधारी देव वहाँ से अपने लोक को चले गये। दो पुत्रों का जन्म कुछ समय बाद भृगु पुरोहित के यहाँ दो पुत्रों ने जन्म लिया। पुरोहित को जैन मुनि वेषधारी देवों ने जो कहा था, वह उसे स्मरण था। मुनियों के कहने से तब उसने ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy