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________________ ३८७ तत्त्व : आचार कथानुयोग ] कथानुयोग – चित और संभूत: चित्त-संभूत जातक तुम्हें ऐसा करना चाहिए- तुम अपने राज्य में धर्मानुसंगत, न्यायानुमोदित कर लो। तुम्हारे राष्ट्र में अधार्मिक कृत्य न हों, इसकी व्यवस्था रखो । तुम्हारे दूत- संदेश वाहक चारों दिशाओं में विधावित हों-शीघ्र जाएं, श्रमण-ब्राह्मणों को निमंत्रित करें। जब वे आएं तो तुम खाद्य, पेय, वस्त्र, आस्तरण, आसन एवं अन्यान्य आवश्यक वस्तुओं द्वारा उनकी सेवा करो। तुम प्रसन्न चित्त होकर श्रमण-ब्राह्मणों को अन्न-पान से सन्तृप्त करो। अपनी क्षमता के अनुरूप दान देने वाला और खाने वाला — सुख भोग करने वाला, लोक में अनिन्दित होता है - निन्दा का पात्र नहीं होता । आयुष्यपूर्ण कर वह स्वर्ग प्राप्त करता है । "राजन् ! महिलाओं से संपरिवृत होते हुए तुम्हें कभी राज्य का राज्य-सुख का द--दर्प या अहंकार हो जाए तो मन में स्मरण करना, तत्काल परिषद् के समक्ष उच्चारित करना - वह प्राणी, जो कभी आकाश के नीचे सोता था, चलती-फिरती, नियत-गृहरहित माँ का दूध पीता था, कुत्तों से परिकीर्ण-परिव्याप्त - घिरा रहता था, आज राजा कहलाता है ।"" उपर्युक्त रूप में राजा को संप्रेरित कर बोधिसत्त्व ने कहा - "मैंने तुम्हें अपनी ओर से उपदेश दिया है, अब तुम प्रव्रज्या स्वीकार करो या न करो, तुम जानो। मैं अपने आचीर्ण कर्मों का फल भोगूंगा अपना कार्य करूंगा ।" इतना कहकर बोधिसत्त्व आकाश में उठे, संभूत के सिर पर ऊपर से धूल डालते हुए हिमालय की दिशा में प्रस्थान कर गये । १. न चे तुवं उस्सहसे जनिन्द ! कामे इमे मानुसके पहातुं । धम्मं बलि पहपय्यस्सु राज ! अधम्मकारो च ते माहु रट्ठे ||२४|| दूता विधावन्तु दिसो चतस्तो, निमन्तका समनं ब्राह्मणानं । ते अन्नपानेन उपट्ठहस्सु, वत्थेन सेनासनपच्चयेन च ॥ २५॥ अन्नेन पानेन पनाचित्तो, सन्तप्पय समणे ब्राह्मणे च । दत्वा च भुत्वा च यथानुभावं, अनन्दियो सग्गं उपेति ठानं ॥ २६ ॥ स चे च तं राज ! मदो सहेय्य, नारी गणेहि परिचारयंतं । इमं एव गाथं मनसी करोहि, जन्तु, भासेहि चैनं परिसाय मज्झे ||२७|| अब्मोकाससयो वजन्त्या खीरपायितो । परिकिण्णो सुवा स्वज्ज राजाति वुच्चति ॥२८॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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