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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ चित्त के रूप में विद्यमान बोधिसत्त्व का उपदेश सुनकर पांचालराज संभूत हर्षित हुआ । उसने कहा--"ऋषिवर ! जैसा आप कहते हैं, निश्चय ही वह सत्य है। भिक्षुवर ! मेरे पास काम-भोग के अनल्प-अत्यधिक, अनेक साधन हैं। मेरे जैसे के लिए वे दुस्त्यजकठिनाई से त्यागने योग्य हैं-उन्हें छोड़ पाना मुझ जैसे के लिए बहुत दुष्कर है।। कीचड़ में, दलदल में फंसा हुआ हाथी जमीन को देखते हुए भी वहाँ तक पहुंच नहीं सकता, उसी प्रकार मैं काम-भोगों के कीचड़ में फंसा हुआ हूँ, आप द्वारा मार्ग दिखाए जाने पर भी मैं उस पर-संयम-पथ पर चल नहीं सकता। "भन्ते ! जिस प्रकार मां-बाप पुत्र को, सुखी बनाने की भावना से उसे अनुशासित करते हैं, शिक्षा देते हैं, उसी प्रकार आप मुझे शिक्षा प्रदान करें, जिससे मैं सही माने में सुखी बन सकू।" मार्ग-दर्शन इस पर बोधिसत्त्व ने राजा को मार्ग-दर्शन देते हुए कहा-"राजन् ! यदि तुम मानव-जीवन-सम्बन्धी काम-भोगों का परित्याग करने का उत्साह, साहस नहीं कर सकते तो (शेष पृष्ठ ३८५ का) उपनीयती जीवितं अप्पमायु, जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा। करोहि पञ्चाल ! मम एत वाक्यं, मा कासि कम्मानि दुक्खप्फलानि ।।१८।। उपनीयती जीवितं अप्पमायु, जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा। करोहि पञ्चाल ! मम एत वाक्यं, मा कासि कम्मानि रजस्सिरानि ।।१६।। उपनीयती जीवितं अप्पमायु, वणं जरा हन्ति नरस्स जीवितो। करोहि पञ्चाल ! मम एत वाक्यं, मा कासि कम्म निरयुपपत्तिया ॥२०॥ १. अद्धा हि सच्चं वचनं तच्च एतं, यथा इसी भाससि एव एतं । कामा च मे सन्ति अनप्परूपा, ते दुच्चजा मादिसकेन __मिक्खु ॥२१॥ नागो यथा पंकमज्झे व्यसन्नो, पस्स थल नाभिसम्भोति गन्तुं । एव पहं कामपंके व्यसन्नो, न मिक्खुनो मग्गं अनुब्बजामि ॥२२॥ यथा पि माता च पिता च पुत्तं, अनुसासए कि ति सुखी भवेय्य । एवं पि मं त्वं अनुसास भन्ते ! यं आचरं पेच्च सुखी भवेय्यं ॥२३॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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