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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चित्त और संभूत : चित्त-संभूत जातक ३८५ तथा नर्मदा के तट पर पक्षी के रूप में जन्म लिया। वही दोनों आज हम ब्राह्मण एवं क्षत्रिय के रूप में जन्म ग्रहण किए हुए हैं । मेरा जन्म ब्राह्मण-कुल में हुआ और तुम्हारा क्षत्रिय. कुल में।"
चित्त ने संभूत के समक्ष उक्त रूप में अपनी पिछली निम्न योनियों प्रकट की। फिर उसने संसार की नश्वरता, जीवन की क्षणभंगुरता आदि का विवेचन करते हुए उसे धर्म की ओर प्रेरित करते हुए कहा-"मनुष्य का आपुष्य अल्प है, ज्यों-ज्यों वह व्यतीत होता जाता है, मनुष्य मृत्यु के समीप पहुंचता जाता है। इस जीवन में मनुष्य को वृद्धावस्था जैसे दुःख से कोई बचा नहीं सकता। इससे बचने का कोई उपाय नहीं है । पांचाल राज ! मेरा कहना मानो, ऐसे कर्म मत करो, जिनसे दु:ख का उद्रेक हो, दुःख झेलना पड़े। ऐसे कर्म मत करो, जिनसे चित्त पापात्मक मल-रूपी रज से-धूल से आच्छन्न हो जाए, ढक जाए।
__"पुनः कहता हूं-मनुष्य की आयु बहुत कम है, मौत समीप आती जा रही है। दुनिवार वृद्धावस्था मनुष्य का वर्ण विनष्ट कर देती है-उसकी कांति, दीप्ति, चमकसब कुछ मिटा डालती है। पांचाल राज ! मेरा कहना मानो, वैसे कर्म मत करो, जो मनुष्य को नरक में ले जाते हैं।"
१. दिस्वा फलं दुच्चरितस्स राज, अथो सुचिण्णस्स महाविपाकं । अत्तानमेव
पटिसन मिस्सं, न पत्थये पुत्तं पसुं धनं वा ॥११॥ दसेव इमा वस्स दसा, मच्चानं इध जीवितं । अप्पत्तं एव तं ओधि, नलो छिन्नो व सुस्सति ॥१२॥ तत्थ का नन्दिका खिड्डा, का रति का धनेसना। कि मे पुतेहि दारेहि, राज मुनोस्मि बन्धना ।।१३।। सोहं सुप्पजानामि, मच्यु मे नप्पमज्जति । अन्तकेना धिपन्नस, का रति का धनेसना ॥१४॥ जाति नरानं अधमा जनिन्द ! चण्डाल योनी दि पदा कनिट्ठा। सकेहि कम्मेहि सुपापकेहि चण्डाल-गब्भे अवसिम्ह पुब्बे ॥१५।। चण्डालाहूम्ह अवन्तीसु, मिग्गा नेरञ्जरं पति ।
उक्कुसा नम्मदा तीरे, त्यज्ज-ब्राह्मण-खत्तिया ॥१६॥ २. उपनीयती जीवितं अप्पमायु,
जरूपनीतस्स न सन्ति ताणा । करोहि पञ्चाल ! मम एत वाक्यं, मा कासि कम्मानि दुक्खद्रयानि ॥१७॥
(शेष पृ० ३८६ पर)
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