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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन । खण्ड: ३ आया, पैदल ही चित्त पंडित के समीप गया प्रणाम किया, एक ओर खड़ा हो गया तथा अपने उद्गार प्रकट करते हुए कहा-"परिषद् के मध्य उपस्थापित गाथा के कारण आज मैं बहुत लाभान्वित हुआ हूं। आज मैं शील-व्रत से उपपन्न -- युक्त ऋषि का दर्शन कर रहा हूँ। मेरा मन इससे अत्यन्त प्रसन्न हो रहा है।" राजा ऋषि के दर्शन कर और यह जानकर कि यह मेरा भाई चित्त पंडित है, बहुत प्रसन्न हुआ। उसने चित्त पंडित को सम्बोधित कर कहा-'आप आसन स्वीकार करें, हम आपके चरण प्रक्षालन करें, चरणोदक लें । आपको अर्घ्य अर्पित करें, आर ग्रहण करें।"२ राजा संभूत ने अत्यन्त मधुर तथा स्निग्ध शब्दों द्वारा चित्त ऋषि का स्वागत किया, अभिनन्दन किया । उसने अपने राज्य के दो भाग कर दिये-एक अपने लिए तथा दूसरा चित्त के लिए। वैसा कर उसने ऋषि से कहा- "हम आपके लिए रम्य आवसथ-आवास स्थान बनाएं, महिलाएं आपकी सेवा में रहें, आप अत्यन्त सुखपूर्वक जीवन बिताएं । कृपाकर ऐसा करने की आज्ञा प्रदान करें। हम दोनों यह राज्य करें, राज्य-सुख भोगें।"3 धर्मानुशासन चित्त पंडित ने राजा संभूत का निवेदन सुना। उसे धर्म का उपदेश देते हुए उसने कहा"राजन् ! हम यह स्पष्ट देखते हैं, दुश्चरित का-दुष्कर्मों का बुरा फल होता है तथा सुचीर्ण का-सत्कर्मों का उत्तम फल होता है। इस स्थिति का आकलन कर मैं आत्म-संयम में ही निरत रहूंगा। न मैं पुत्र चाहता हूँ, न गो, महिष आदि पशु-धन चाहता हूँ और न अन्य सम्पत्ति की ही मुझे कामना है। "प्राणियों की जीवनावधि यहाँ केवल दश दशाब्दों की है। हम देखते हैं, बिना उस अवधि को प्राप्त किए ही अनेक प्राणी टूटे हुए बाँस की ज्यों सूख जाते हैं, क्षीण हो जाते हैं, मर जाते हैं। ऐसी स्थिति में आनन्द, क्रोड़ा, विलास, वैभव, एषणा आदि में क्या धरा है। पुत्र, स्त्री तथा राज्य से मुझे क्या लेना है। मैं तो बन्धन से छूटा हुआ हूं, फिर मैं क्यों बन्धन में पहूं? यह मुझे भलीभांति ज्ञात है कि मृत्यु कभी नहीं छोड़ेगी। अन्तक-मृत्यु का देवता-यमराज हर प्राणी के सिर पर खड़ा है। फिर यहाँ कहाँ का आनन्द, कहां का धन, कैसी लिप्सा। "राजन् ! चांडाल जाति सब जातियों में नीची जाति है । हम अपने अशुभ कर्मों के कारण पहले चांडाल जाति में उत्पन्न हुए। नैरञ्जरा के तट पर मृग के रूप में पैदा हुए १. सुलद्ध लामा वत मे अहोसि, गाथा सुगीता परिसाय मज्झे। सोहं इसि सीलवतूपपन्न, दिस्वा पतीतो सुमनो हम स्मि ॥८॥ २. आसनं उदकं पज्जं, पटिगण्हातु नो भवं । __ अग्घे भवन्तं पुच्छाम, अग्धं कुरुतु नो भवं ॥६॥ ३. रम्मं च ते आवसथं करोन्तु, नारीगणेहि परिचारयस्सु। करोहि ओकासं अनुग्गहाय, उभो पि इमं इस्सरियं करोम ॥१०॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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