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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग - चित्त और संभूत : चित्त-संभूत जातक ३८३ देते हैं। कोई भी कृत-कार्य निष्फल नहीं जाता । देव ! आप यह जानें, चित्त का मन भी आपके मन के समान ही समृद्धिमय है ।""
राजा - "क्या तुम चित्त हो ? अथवा क्या तुमने यह गाथा किसी और से सुनी है ? अथवा किसी ऐसे मनुष्य ने यह गाथा बतलाई है, जिसने चित्त को देखा हो । निःसन्देह गाथा का संगान सुन्दर रूप में हुआ है । मैं इस उपलक्ष में पारितोषिक के रूप में तुम्हें सौ गाँव देता हूँ ॥ *
बालक — “राजन् ! मैं चित्त नहीं हूँ । मैंने यह गाथा किसी और से आपके उद्यान में स्थित एक ऋषि ने मुझे यह गाथा सिखलाई है । ऋषि ने मुझे राजा के पास जाओ, इस गाथा का प्रतिगान करो, वह तुम्हें पुरस्कृत कर करेगा । "3
बालक से यह सुनकर राजा ने अपने मन में विचार किया— बहुत संभव है, वह ऋषि मेरा भाई चित्त हो । मुझे चाहिए, मैं अभी जाऊं, देखूं उससे मिलूं । राजा ने अपने कर्मचारियों को आदेश देते हुए कहा - "जिन पर सुन्दर रूप में निर्मित, सुष्ठु रूप में सिले वस्त्र लगे हों, ऐसे रथ जुतवाये जाएं, हाथियों को तैयार किया जाए, अपेक्षित साधनों के साथ सज्जित किया जाए, उनके गले में मालाएँ डाली जाएं । नगारे, मृदंग तथा शंखों का निनाद चालू किया जाए, शीघ्रगामी विविध यान जोते जाएं। मैं आज ही उस स्थान में जाऊंगा, जहाँ ऋषि आकर ठहरे हैं। मैं उनके दर्शन करूंगा । ४
राजा की आज्ञानुसार शीघ्र ही सारी व्यवस्था हो गई । राजा उत्तम रथ पर आरूढ़ हुआ, प्रस्थान किया और वहाँ पहुंचा। वह उद्यान के द्वार पर रथ से नीचे उतर
१. सब्बं नरानं सफलं सुचिणं,
न कम्मना किञ्चन मोघमत्थि । चित्तं विजानाहि तत्थ एव देव ! इद्धो मनो तस्स यथापि तुम्हं ॥ ३ ॥ २. भवं नु चित्तो सुतं अञ्चतो ते,
उदाहु ते कोचि नं एतदक्खा । गाथा सुगीता न मं अस्थि कङ्खा, ददामि ते गाम वरं सतं च ॥४॥ ३. न चाहं चित्तो सुतं अञ्ञतो मे, इसी च मे एतमत्थं असंसि । गन्त्वान र पटिगाहि गाथं, अपि ते वरं अत्तमनो ददेय्य ॥५॥
४. योजेन्तु वे राजरथे, सुकते चित्त सिब्बने । कच्छं नागानं बन्धत्थ, गीवेय्यं पटिमुञ्चथ ॥ ६ ॥ आहञ्ञरू
मेरिमुदिंगसखे,
सीधानि
यानानि
अज्जेव
अहं अस्समं
यत्थेव
दक्खिस्सं
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च
इसि
सुनी है ।
कहा- " - " तुम परितुष्ट
योजयन्तु ।
तं गमिस्स,
निसिन्न ||७||
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