SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ उसे पूछा--"तुम सवेरे से एक ही गीत गा रहे हो, क्या तुम्हें कोई और गीत नहीं आता?" बालक बोला-“भन्ते ! और भी बहुत से गीत जानता हूँ, पर, यह हमारे राजा का प्यारा, रुचिकर गीत है; अतएव मैं इसे ही गा रहा हूँ।" "क्या राजा के सामने प्रत्युत्तर के रूप में प्रतिकूल गीत गा सकोगे?" "मैं वैसे गीत नहीं जानता। यदि मैं जानूं तो गा सकू।" गीत :प्रतिगीत चित्त पंडित ने उसे वैसे गीत दिये, सिखाये और कहा- “जब राजा दो गीत गा चुके, तदुपरान्त मेरे सिखाये ये तीन गीत यथाक्रम गाना । राजा तुम पर प्रसन्न होगा तथा पुरस्कार के रूप में धन देगा।" ___ बालक यह सब समझकर शीघ्र अपने घर पहुंचा, अपनी माता के पास गया, सारी बात माता को कही, साफ-सुथरे कपड़े पहनकर सजा और राज-द्वार पर आया । द्वार पर स्थित प्रहरीद्वारा उसने राजा को निवेदन करवाया-“एक बालक आया है, वह आपके साथ प्रतिगीत गाना चाहता है।" बालक का अनुरोध स्वीकार कर राजा ने कहलवाया--"वह आ जाये। राजा के आदेश से बालक भीतर गया, राजा को प्रणाम किया। राजा ने पछा"तात! तम मेरे समक्ष प्रतिगीत गाओगे?" बालक बोला---"हाँ देव ! मैं प्रतिगीत गाऊंगा। आप समस्त राज्य-परिषद एकत्र कराएं।" राजा के आदेश से समस्त राज्य-परिषद् एकत्र हो गई। बालक ने राजा से निवेदन किया--"देव ! अब आप अपना गीत गायें, प्रत्युत्तर में मैं प्रतिगीत गाऊंगा।" राजा ने दो गाथाओं के रूप में अपना गीत प्रस्तुत किया--''मनुष्यों द्वारा किए गये समग्र कर्म अपना-अपना फल देते हैं। कर्म-फल से किसी का छुटकारा नहीं-कृत-कर्म कभी निष्फल, व्यर्थ नहीं जाते। महानुभाव-परम प्रतापी संभूत अपने द्वारा आचरित सत्कर्मों के पुण्यमय फल को प्राप्त किए हुए हैं-अपने पुण्यों का सुखमय फल भोग रहा है । "मनुष्यों के कृत:कर्ष अपना-अपना फल देते हैं। उन में कोई भी कर्म निरर्थक, निष्फल नहीं जाता । मेरा मन समृद्ध-उल्लसित, प्रहषित है। कदाचित् चित्त का मन भी मेरे ही मन के सदृश समुल्लसित हो।" राजा द्वारा दो गाथाओं के रूप में अपना गीत प्रस्तुत कर दिये जाने पर बालक ने एक गाथा द्वारा प्रतिगीत प्रस्तुत किया- "मनुष्यों द्वारा किये गये कर्म अपना-अपना फल १. सब्बं नरानं सफलं सुचिण्णं, न कम्मना किञ्चन मोधमत्थि । पस्सामि सम्भूत महानुभावं, सकम्मना पुजाफलपपन्नं ॥१॥ सब्बं नरानं सफलं सुचिण्णं, न कम्मना किञ्चन मोधमत्थि । कच्चि नु चित्तस्स पि एव एव, इदो मनो तस्य यथापि मय्हं ॥२॥ ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy