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३८० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३ खाद्य, पक्वान्न तुम खा लेना, मेरा हिस्सा अपने साथ ले आना।" चित्त पण्डित ने आचार्य की आज्ञा शिरोधार्य की। वह विद्यार्थियों को साथ लिए उस गाँव में आया। भोजन कराने वाले आदमियों ने सोचा-ब्रह्मचारी-विद्यार्थी जब तक हाथ मुंह धोएं, स्नान आदि करें, खीर परोस कर रख दें, तब तक ठंडी हो जाए। यह सोचकर यजमान ने खीर परोस दी। विद्यार्थी शीघ्र ही स्नान आदि से निवृत्त हो गए । खीर तब तक ठंडी नहीं हुई थी। विद्यार्थी भोजन करने बैठ गये । परोसी हुई खीर उनके सामने रख दी गई । संभूत जल्दी से खीर खाने का लोभ-संवरण नहीं कर सका। यों समझा,खीर ठंडी हो गई है, उसने खीर का एक ग्रास मुंह में डाल लिया। खीर बहुत गर्म थी। उससे उसका मुंह इस प्रकार जलने लगा, मानो तपाया हुआ लोह-पिण्ड मुंह में रख दिया हो। वह घबरा गया, काँप उठा, होश-हवाश भूल गया, आकुलता में कुछ ध्यान न रहा, बुद्धि ठिकाने नहीं रही । उसने चित्त पंडित की ओर देखा। उसके मुंह से चांडाल-भाषा में निकल पड़ा-"अरे ! खीर से मेरा मुंह बुरी तरह जला जा रहा है, क्या करूं ?" तब तक चित्त को भी ध्यान न रहा । अस्थिर मनोदशा के कारण उसके मंह से भी चांडाल-भाषा में ही निकला-"खीर को निगल जाओ।" जब सहवर्ती ब्रह्मचारियों ने यह सुना तो वे आश्चर्यान्वित हुए, एक दूसरे की ओर देखने लगेये दोनों किस भाषा में बोल रहे हैं, यह कौन-सी भाषा है।
ब्रह्मचारियों द्वारा प्रताड़ना
चित्त पंडित ने ग्रामवासी के यहाँ मंगल पाठ किया। पाठ का कार्यक्रम सम्पन्न हो गया। ब्रह्मचारी वहाँ से निकल कर अलग-अलग जहां-तहाँ बैठ गए। चित्त तथा संभूत द्वारा बोली गई भाषा का परीक्षण करने लगे। पठित तो थे ही, उन्हें पता लग गया, वह चांडाल भाषा थी। ब्रह्मचारी बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने उन दोनों को बुरी तरह मारा, पीटा, कहा"अरे ! दुष्ट चांडालो। तुम बड़े नीच हो । अपने को ब्राह्मण बतलाकर इतने दिन तक हमें भ्रष्ट करते रहे, धोखे में रखा।" इतना कह कर और पीटने लगे। इतने में एक भला आदमी वहाँ पहुँचा। उसने समझा-बुझाकर ब्रह्मचारियों को वहां से हटाया, चित्त संभूत को उनसे बचाया।
ऋषि-प्रव्रज्या : उत्तर-भव
उस सत्पुरुष ने चित्त और संभूत को यह शिक्षा दी कि तुम्हारी जाति का ही यह दोष है । इसके कारण ही इस प्रकार पीडित हुए, दुःखित हुए। अच्छा यह होगा, जाओ तुम कहीं प्रव्रज्या ग्रहण कर लो। प्रवजित होकर जीवन बिताओ। उधर ब्रह्मचारी अपने आचार्य के पास पहुँचे तथा उनको बताया, चित्त और संभूत चाण्डाल थे।
चित्त और संभूत वन में चले गए। वे ऋषि-प्रव्रज्या को पद्धति से प्रव्रजित हुए।
कुछ समय बाद उन्होंने देह-त्याग किया। वे नेरञ्जरा नामक नदी के तट पर एक हरिणी की कोख से हरिणों के रूप में उत्पन्न हुए। जन्म-काल से ही दोनों में परस्पर बड़ा प्रेम था। दोनों साथ-साथ रहते, साथ-साथ चरते, साथ-साथ बैठते, कभी अलग-अलग नहीं रहते।
___ एक दिन की घटना है, वे चर चुके थे। अपने मस्तक से मस्तक मिलाए, सींगो से सींग मिलाए, मुंह से मुंह मिलाए जुगाली कर रहे थे। एक आखेटक वहाँ आया। उन पर
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