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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — चित्त और संभूत : चित्त संभूत जातक ३७६
विशिष्ट शिल्प में कौशल प्राप्त किया। एक बार दोनों के मन में आया - अपना शिल्पकौशल दिखलाएं । एक उज्जैनी नगरी के उत्तरी द्वार पर शिल्प का प्रदर्शन करने लगा तथा दूसरा पूर्वी द्वार पर शिल्प कौशल दिखाने लगा ।
दिट्ठमंगलिकाएं
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उस नगर में एक सेठ की पुत्री तथा एक पुरोहित की पुत्री दिट्ठमंगलिकाएँ थींशकुन ' में विश्वास करती थीं । उसी दिन उन दोनों ने उद्यान - क्रीड़ा हेतु जाने का विचार किया । प्रचुर खाद्य-पदार्थ आदि लिए उनमें से एक उत्तरी द्वार से निकली तथा दूसरी पूर्वी द्वार से निकली । उन्होंने चांडाल पुत्रों को देखा, जो अपना शिल्प प्रदर्शित कर रहे थे । उन्होंने पूछा - " ये कौन है ?" लोगों ने बताया – “ये चांडाल पुत्र हैं ।" उन दोनों ने इसे अपशकुन माना, कुंझला गईं, सुगन्धित पानी से अपने नेत्र धोए तथा कहा - " आज अदर्शनीय के दर्शन हुए-नहीं देखने योग्य देखा ।" यह कहकर वे वापस लौट गईं ।
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अपशकुन : मारपीट : तक्षशिला-गमन
साथ के लोगों को यह घटना बड़ी अप्रिय लगी । उन्होंने उन दोनों को बुरी तरह पीटा और कहा-“अरे दुष्ट चांडालो ! तुम लोगों ने बड़ा बुरा किया, अपशकुन कर दिया । हमें मुफ्त में मदिरा मिलती, अच्छा भोजन मिलता । तुमने यह सब बिगाड़ डाला ।" दोनों चांडाल - पुत्र मार से बेहोश हो गए। पीटने वाले पीटकर चले गए। कुछ देर बाद उन दोनों को होश आया । दोनों चलकर एक स्थान पर परस्पर मिले। जो दुःखद घटना उनके साथ घटी, उसकी चर्चा की, अफसोस किया । वे कहने लगे -- " बहुत बुरा हुआ । आगे भी ऐसा हो सकता है । हमें क्या करना चाहिए, जिससे फिर कभी दुर्दशा न हो । यह सब हमारे चांडाल जाति के होने के कारण हुआ । जब तक हम चांडाल-कर्म में रहेंगे, हमारे प्रति लोगों का घृणा भाव रहेगा। अच्छा हो, हम अपनी जाति का संगोपन करके ब्राह्मणविद्यार्थी के रूप में तक्षशिला जाएं और वहाँ गहन विद्याध्ययन करें, विशिष्ट शिल्प - कौशल प्राप्त करें।"
उनके विचार ने निश्चय का रूप लिया । वे दोनों तक्षशिला गये । वहाँ जो सुविख्यात आचार्य थे, उनके शिष्य बने, विद्याध्ययन करने लगे । एक सामान्य चर्चा विद्या पीठ में थी — जम्बूद्वीप से दो चांडाल अपनी जाति संगोपित कर विद्या पढ़ रहे हैं, पर, कोई नहीं जानते थे, वे कौन से हैं । चित्त और संभूत के लिए किसी के मन में संशय नहीं था । विद्याध्ययन चलता रहा । चित्त ने अपना अध्ययन समाप्त कर लिया । संभूत का अध्ययन समाप्त नहीं हुआ था ।
चाण्डाल भाषा का प्रयोग
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एक दिन का प्रसंग है, एक ग्रामवासी ने आचार्य को अपने यहाँ शास्त्रपाठ हेतु आमंत्रित किया । रात्रि में वर्षा हो में गई । रास्ते आने वाले गड्ढे, कन्दराएँ पोखर आदि पानी से भर गये । आचार्य ने सवेरे चित्त पंडित को अपने पास बुलाया और उससे कहा"मौसम ठीक नहीं है । मैं पाठ करने लिए नहीं जा सकूंगा । विद्यार्थियों को साथ लेकर तुम जाओ । ग्रामवासी के यहाँ करने पर जो मिले, उसमें से अपने हिस्से का
मंगल पाठ
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