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________________ ३७८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड : ३ में स्थिर होकर आर्य-कर्म-उत्तमोत्तम पुण्य कार्य करो, सभी प्राणियों पर अनुकम्पाशील रहो। इससे तुम वैक्रिय शरीर-युक्त-इच्छानुकूल रूप बनाने में समर्थ देव बनोगे।" "राजन् ! भोगों के त्याग करने की बुद्धि-चिन्तन तुममें नहीं है। तुम आरम्भ और परिग्रह में लोलुप हो। मैंने यह विप्रलाप-बकवास व्यर्थ ही किया। अब मैं जा रहा हूँ।" पाँचालराज ब्रह्मदत्त साध के वचनों का अनुसरण नहीं कर सका। उन द्वारा उपदिष्ट मार्ग पर नहीं चल सका। अनुत्तर-अति उत्तम सांसारिक भोगों को भोगकर वह अनुत्तर–सर्वाधिक भीषण नरक में गया। महर्षि चित्त सांसारिक भोगों से विरक्त रहते हुए उदग्र–उत्कृष्ट चारित्र एवं तप का आचरण करते हुए अनुत्तर–सर्वोत्तम सिद्ध गति को प्राप्त हुए।' चित्त-संभूत जातक शास्ता जेतवन में विहार करते थे, उन्होंने सव्वं नरानं सफलं सुचिन्नं यह गाथा आयुष्मान् महाकाश्यप के साहचर्य में रहने वाले उन दो भिक्षुओं के सम्बन्ध में कही, जिनका परस्पर बहुत प्रेम था। दो भिक्षुओं का घनिष्ठ सौहार्द वे दोनों भिक्षु आपस में एक-दूसरे का बहुत विश्वास करते थे। जो कुछ भी प्राप्त होता, परस्पर बाँट लेते । भिक्षा के लिए एक साथ जाते और एक ही साथ वापस लौटते । वे अलग-अलग नहीं रह सकते, इतनी आत्मीयता तथा स्नेह उनमें था। ___ एक बार धर्म-सभा में विद्यमान भिक्षु उन दोनों मिक्षुओं के पारस्परिक विश्वास तथा सौहार्द की चर्चा कर रहे थे। शास्ता उधर आये। उन्होंने पूछा- “भिक्षुओ ! बैठेबैठे क्या वार्तालाप कर रहे थे?" भिक्षुओं ने कहा---“भन्ते ! दो भिक्षुओं के आपस के प्रगाढ़ प्रेम और सुहृद्-भाव की चर्चा करते थे।" भगवान् ने कहा-"भिक्षुओ ! इसमें आश्चर्य करने जैसा कुछ नहीं है। ये दोनों भिक्षु तो इस एक ही जन्म में आपस में इतने विश्वस्त हैं, पर, पुरातनकालीन पंडितोंज्ञानी जनों ने तो तीन चार जन्म पर्यन्त मित्र-भाव का त्याग नहीं किया, एक दूसरे के प्रति अत्यन्त सौहार्द पूर्ण रहे।" विशिष्ट शिल्पकुशल चित्त, संभूत प्राचीन काल की बात है, अवन्ती नामक राष्ट्र था। उज्जैनी नामक नगरी थी, जो अवन्ती राष्ट्र की राजधानी थी। अवन्ती महाराज वहाँ राज्य करते थे। तब उज्जैनी नगरी के बाहर चांडालों का एक गांव था। बोधिसत्त्व नं एक चांडाल के घर जन्म लिया। क दसरा प्राणी भी उसकी मौसी के पत्र के रूप में जन्मा। एक का-बोधिसत्त्व का नाम चित्त रखा गया। दूसरे का संभूत रखा गया। उन दोनों ने चांडाल वंश में प्रचलित एक १. आधार-उत्तराध्ययन सूत्र, तेरहवां अध्ययन, चूणि, वृत्ति । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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