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तव : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग -- चित्त और संभूत : चित्त-संभूत जातक ३७७
में विलाप हैं, सभी नृत्य विडम्बना है । सौन्दर्य के लिए धारण किये जाने वाले सभी आभूषण भार हैं। सभी काम - भौतिक सुख-दुःख प्रद हैं । राजन् ! जो अज्ञानी जनों को प्रिय लगते हैं, पर, वास्तव में जिनका अन्त दुःख में है, ऐसे काम-भोगों में मनुष्यों को वह सुखआध्यात्मिक आनन्द नहीं मिलता, जैसा सुख भोगों से विरक्त, शील गुणों में अनुरक्त - संयमरत तपोधन भिक्षुओं को प्राप्त होता है । राजन् ! पूर्व-जन्म में हम दोनों मनुष्यों में अधम-नीच चाण्डाल जाति में उत्पन्न हुए थे । हम चाण्डालों की बस्ती में चाण्डाल - गृह में रहते थे। सभी जन हम से द्वेष करते थे, घृणा करते थे - हमें निन्दित मानते थे । राजन् ! इस जन्म में हम पूर्वकृत पुण्य कर्मों के फल स्वरूप भिन्न स्थिति में हैं । शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप तुम यहाँ महान् प्रतापी, महान् ऋद्धिशाली चक्रवर्ती सम्राट् हो । अब अशाश्वत भोगों का परित्याग कर चारित्र स्वीकार करने के लिए अभिनिष्क्रमण करो - बाहर निकलो, आगे बढ़ो ! राजन् ! जो इस अशाश्वत - क्षण-भंगुर जीवन में पुण्य कर्म नहीं करता, वह मौत के मुँह में पड़ जाने पर बड़ा शोकान्वित होता है, उसका परलोक बिगड़ जाता है । जैसे सिंह मृग को पकड़ कर उठा ले जाता है, उसी तरह अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को उठा ले जाती है । उस समय माता, पिता, प्रिय जन एवं भाई उसे जरा भी बचा नहीं सकते । जातीय जन उसका दुःख नहीं बंटा सकते । मित्रगण, पुत्र तथा बन्धु बान्धव उसके दुःख में भागी नहीं बन सकते । वह स्वयं अकेला ही दुःख भोगता है; क्योंकि कर्म करने वाले का ही पीछा करता है । आत्मा द्विपद – दो पैरों वाले मनुष्य आदि, चतुष्पद— चार पैरों वाले पशु आदि, क्षेत्र, घर, धन, धान्य- इन सभी को छोड़कर अपने कर्मों के वशगत हुआ स्वर्ग में या नरक में जाता है । एकाकी जाने वाले उसके निर्जीव शरीर को चिता में रखकर अग्नि से जला दिया जाता है । फिर उसके जातीय जन, पत्नी तथा पुत्र आदि पारिवारिक - वृन्द दूसरे का, जिससे उनका स्वार्थ सधता है, अनुगमन करते हैं, उसे अपना लेते हैं । यह जीवन निरन्तर मृत्यु की ओर बढ़ता जाता है वृद्धावस्था मनुष्य के वर्ण - शोभा, दीप्ति या कान्ति को हर लेती है । पांचाल राज ! मेरा कथन सुनो, समझो, घोर आरम्भ-समरभ्यमय कर्म मत करो। "
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“मुने ! आप जो मुझे कह रहे हैं, मैं भी उसे यथावत् रूप में जानता हूँ । हे आर्य ! ये सांसारिक भोग मन में आसक्ति - आकर्षण पैदा करते हैं— मेरे जैसे के लिए इन्हें जीत पाना कठिन है । मुनिवर चित्त ! मैंने हस्तिनापुर में महान् ऋद्धिशाली नरपति और रानी को देखकर काम भोग में लोलुप बनकर अशुभ निदान किया था। उस निदान का प्रतिक्रमण, प्रायश्चित नहीं करने से मुझे ऐसा फल प्राप्त हुआ - यह अत्यधिक भोग सुखमय चक्रवर्ती का भव मिला । यद्यपि मैं धर्म को जानता हूँ, किन्तु, काम भोगों में मूच्छित हैं, अपनी सुधबुध खोये उनमें आसक्त हैं । जैसे कीचड़ में फँसा हुआ हाथी जमीन को देखता हुआ भी कीचड़ से निकलकर उसके किनारे नहीं आ पाता, उसी प्रकार विषय-वासना में लोलुप मैं साधु-मार्ग को जानता हुआ भी उसका अनुव्रजन नहीं कर सकता, उस पर चलने में समर्थ नहीं हो पाता ।"
मुनि ने कहा – “समय बीत रहा है, रातें त्वरा पूर्वक – बहुत जल्दी-जल्दी जा रही हैं। मनुष्यों के ये भोग - सांसारिक सुख नित्य नहीं हैं । ये आते हैं और पुण्य क्षय हो जाने पर मनुष्य को छोड़कर वैसे ही चले जाते हैं, जैसे फलों के क्षीण हो जाने पर पक्षी वृक्ष को छोड़कर चले जाते हैं । राजन् ! यदि तुम भोगों का त्याग करने में असमर्थ हो तो धर्म-भाव
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