SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३७६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन उसके मन पर चोट पहुँची। वह मूच्छित हो गया। लोग किसान को पीटने लगे। तब उस किसान ने बताया कि श्लोक की पूर्ति अमुक मुनि ने की है। चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त बहुत प्रसन्न हुआ । उसने कृषक को मनमाना पारितोषिक दिया। वह अपनी चतुरंगिणी सेना साथ लिए अपने भ्राता मुनिवर के दर्शन हेतु नगर से बाहर निकला। जहां मुनिवर थे, वहां आया। उनके दर्शन किये। मन में असीम हर्ष हुआ। दोनों उपस्थित जनता के बीच विराजित ए। भ्रात-मिलन परम ऋकि-सम्पन्न, परम यशस्वी चक्रवर्ती सम्राट ब्रह्मदत्त ने अपने पूर्व भव के भाई मुनि चित्त का बहुत सम्मान किया तथा वह उनसे बोला-"हम दोनों भाई थे, एक दूसरे के वंशानुगत थे--एक दूसरे की इच्छा के अनुरूप चलने वाले थे, हमारा एक दूसरे के प्रति परस्पर अनुराग था और हम एक दूसरे के हिताकांक्षी थे। हम दोनों दशार्ण देश में दास थे, कालिंजर पर्वत पर मृग थे, मृत गंगा नदी के तट पर हंस थे तथा काशी में चाण्डाल थे। तत्पश्चात् हम दोनों स्वर्ग में महान ऋद्धिशाली देव थे। यह हमारा छठा भव है, जिसमें हम एक दूसरे से अलग हुए हैं।" तत्त्वालाप मुनि ने कहा-'राजन् ! तुमने मन से निदान तप के फल स्वरूप ऐहिक सुख प्राप्त करने का संकल्प किया था। उस निदान का फल उदित होने पर अपना आपस में वियोग हुआ-हमारा पृथक्-पृथक् स्थानों में जन्म हआ।" चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने कहा-"मुनिवर चित्त ! मैंने पूर्व जन्म में सत्य तथा शौचपवित्र आचार-युक्त कर्म किये थे। उनका सुखमय फल मैं यहाँ भोग रहा हूँ। क्या तुम भी वैसे उत्तम फल भोग रहे हो?" मुनि ने कहा-"मनुष्यों द्वारा आचरित सत्कर्म सफल होते हैं-समय पर उनका सुफल प्राप्त होता है । यह तथ्य है--किये हुए कर्मों का फल भोगे बिना मुक्ति नहीं मिलती। पूर्व आचीर्ण पुण्य फलस्वरूप में भी उत्तम पदार्थों और काम-भोगों से समायुक्त था-मैंने भी ऐहिक सुख भोगे हैं । सम्भूत ! जैसे तुम अपने को परम भाग्यशाली, समृद्धिशाली तथा पुण्य फलोपेत जानते हो, यह चित भी कभी उसी प्रकार समृद्धि, वैभव तथा द्युति युक्त था। जिस प्रकार महान् अर्थ-युक्त धर्म-वाणा सुनकर अन्य जन ज्ञान पूर्वक जन-समूह के बीच शीलगुण-युक्त भिक्षु जीवन स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार मैं भी धर्म-वाणी से प्रेरित होकर श्रमण बना हैं।" चक्रवर्ती ने कहा- चित्त ! देखो, मेरे यहाँ उच्चोदय, मधु, कर्क मध्य और ब्रह्म संज्ञक भवन है । और भी रमणीय प्रासाद हैं। वे पांचाल देश के रूप, गुण तथा कला आदि से युक्त हैं । तुम उनमें निवास करो, सुख भोगो। हे भिक्षु ! नृत्य, गीत तथा वाद्यों के बीच तुम सुन्दर नारियों के परिवार के साथ सांसारिक सुखों का सेवन करो। तुम्हारा यह प्रव्रजित जीवन-भिक्षु का जीवन वास्तव में दुःखपूर्ण है, ऐसा मुझे लगता है। धर्मोपदेश पूर्व-जन्म के प्रेम के कारण अनुरागी, सांसारिक भोगों में लिप्त चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त की बात सुनकर धर्म में आस्थित तथा उसके हितैषी मुनि चित्त ने कहा-"सभी गीत वास्तव Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy