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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३६६ राजा ने परिवाजिका का कथन सुना। उसने महौषध के गुणों की प्रशस्ति करते हुए कहा आर्ये ! जब से महौषध मेरे यहाँ आया है, तब से मैंने इसमें एक भी, अणुमात्र भी अवगुण नहीं देखा । यदि कदाचित् इससे पूर्व मेरी मुत्यु हो जाए तो मुझे विश्वास है, मेरे बेटों को, पोतों को–उत्तराधिकारियों को सब प्रकार से सुख पहुँचे, महौषध पण्डित वैसी व्यवस्था करेगा । यह भविष्य में घटित होने वाली सभी स्थितियों को पहले से ही देखता है, उनका ध्यान रखता है, उधर जागरूक रहता है। ऐसे उत्तम गुणयुक्त, सर्वथा दोषवजित पुरुष की मैं जलराक्षस को बलि नहीं दूंगा।' परिव्राजिका ने विचार किया-महौषध के गुणों के प्रख्यापन के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है । जैसे विशाल सागर पर सुरभिमय जल छिड़का जाए, उसी प्रकार मैं समग्र नगरवासियों के मध्य इसके गुण ख्यापित करूंगी। वह राजा को साथ लिये महल से नीचे आई । राजप्रासाद के प्रांगण में आसन बिछाया। उस पर बैठी। उसने उत्तर पाञ्चाल के नागरिकों को वहाँ एकत्र करवाया। राजा को भी बिठाया। राजा से वे प्रश्न आरंभ से अन्त तक पुनः पूछे । राजा ने पूर्ववत् विस्तार से उत्तर दिये। परिव्राजिका ने वहाँ एकत्रित उत्तर पाञ्चाल के लोगों को सम्बोधित कर कहा - नागरिको ! राजा चूळनी ब्रह्मदत्त का यह अभिभाषण-वक्तव्य सुनो। यह महौषध पण्डित को बचाने के लिए अपनी माता के, पत्नी के, भाई के, पुरोहित के तथा अपने भी प्रिय, दुष्त्याज्य---जिनका त्याग करना बहुत कठिन है, प्राण-विसर्जन हेतु तत्पर है। राजा की यह प्रज्ञा-विचार-चेतना महाथिका-महान् अर्थों - महत्त्वपूर्ण प्रयोजनों की साधिका है, नैपुण्यमयी है, सात्त्विक चिन्तन युक्त है, दृष्टधर्मा है- नुमोदित है, हितार्था—हितप्रदा है, इस लोक एवं परलोक में सुखावहा है ।२ । जिस प्रकार रत्न-निर्मित भवन पर मणिमय शिखर लगा दिया जाए, उसी प्रकार भेरी परिव्राजिका ने बोधिसत्त्व के उत्तम गुणों का आख्यान कर अपना अभिभाषण समाप्त किया। १. यतोपि आगतो अय्ये मम हत्थं महोसधो । नाभिजानामि धीरस्स अनुमत्तम्पि दुक्कतं ॥३०५।। स चेव कस्मिचि काले मरणं मे पुरे सिया । पत्ते च मे पपत्ते च सखापेय्य महोसधौ ॥३०६।। अनागते पय्यप्पन्नं सब्बमत्थं विपस्सति ।। अनापराधकम्मन्तं न दज्जं दकरक्खिनो ॥३०७।। २. इदं सुणोथ पञ्चाला चूळनीयस्स भासितं । पण्डितं अनुरक्खन्तो प्राणं चजति दुच्चजं ॥३०८॥ मातु भरियाय भातुच्च सखिनो ब्राह्मणस्स च । अत्तनो चापि पञ्चालो छन्न चजति जीवितं ।।३०।। एवं महत्थिका पञआ निपुणा साधुचिन्तनी। दिठ्ठधम्मे हितत्थाय सम्पराये सुखाय ॥३१०॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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