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________________ ३६८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड: ३ भेरी परिव्राजिका ने कहा-खैर, तुम्हारे मित्र धनुशेखर में तो ये अवगुण हैं किन्तु पुरोहित तो तुम्हारा बड़ा उपकारक है, बहुत काम आता है । __ वह सब प्रकार के शुभ, अशुभ लक्षणों को जानने में निपुण है, निमित्तज्ञ हैज्योतिविद् है, समग्र पक्षियों की भाषा जानता है, सब शास्त्रों का अध्येता है, आँधी, तफान, विद्यत्पात आदि सभी उपद्रव तथा स्वप्न-फल आदि का सम्यक वेत्ता है, व्याख्य है, प्रस्थान, प्रवेश आदि के समुचित समय का परिज्ञाता है, नक्षत्रों की गति को मली-भाँति जानता है, पृथ्वी और आकाश के सर्वविघ दोषों अपशकुनों के सम्बन्ध में जिसे तलस्पर्शी ज्ञान है, ऐसे सुयोग्य, विज्ञ ब्राह्मण की तुम जल राक्षस को बलि क्यों दोगे?"१ राजा ने पुरोहित के अवगुण बतलाते हुए कहा-"जब मैं राजसभा में बैठा होता है, तब भी यह मेरी ओर कोपाविष्ट की ज्यों झाँकता रहता है। यह अशिष्ट है, समयोचित व्यवहार ही नहीं जानता । इस स्थिर-जमी हुई सी, दीखने में अभद्र भौंह युक्त, भीषण देहाकृतियुक्त ब्राह्मण की इस कारण जल-राक्षस को बलि दूंगा।" तत्पश्चात् भेरी परिवाजिका ने कहा- "राजन् ! तुमने अपनी माता से शुरू कर पूरोहित तक पांचों की क्रमशः जलराक्षस को बलि देने की बात कही। तुमने यह भी कहा कि महौषध को बचाने के लिए तुम जलराक्षस को अपनी भी बलि दे दोगे। महौषध में ऐसे क्या गुण हैं, जिससे उसकी बलि देना नहीं चाहते ?" सागर-संपरिवृत वसुंधरा का तुम अपने मन्त्रियों के साथ राज्य करते हो, तुम्हारा राष्ट्र चारों दिशाओं तक विस्तीर्ण है। तुम विजयशील हो। तुम महापराक्रमशाली हो। पृथ्वी के एकछत्र सम्राट हो। तुम्हारा यश, ऐश्वर्य, वैभव वैपुल्य युक्त है। मुक्तामय, मणिमय कुण्डलों से अलंकृत, विभिन्न जनपदों से समागत, देव-कन्याओं के सदृश रूपलावण्यवती सोलह हजार सुन्दरियाँ तुम्हारे अन्तःपुर में हैं। राजन् ! जिनके जीवन के समग्र अंग-सभी पहलू परिपूर्ण-त्रुटिहीन होते हैं, जो सब प्रकार से सुखयुक्त, समृद्धियुक्त होते हैं, उन्हें अपना दीर्घ जीवन प्रिय-अभीष्ट होता है। फिर तुम किस कारण महौषध पण्डित की रक्षा के लिए अपने दुष्त्याज्य-जिन्हें त्यागना बहुत कठिन है, प्राणों का विसर्जन करना चाहते हो?"3 १. कुसलो सब्ब निमित्तानं रुदञ्ज आगतागमो। उप्पादे सुपिने युत्तो निय्याणे च पवेसने ॥२६७।। पद्धो भुम्मन्तलिक्खस्मि नक्खत पद कोविदो। ब्राह्मणं केन दोसेन दज्जासि दकरक्खिनो ॥२६८।। २. परिसायम्पि मे अय्ये मीलयित्वा उदिक्खति । तस्मा अज्ज भ# लुई दज्जाहं दकरक्खिनो।।२६६॥ ३. ससमुद्दपरियायं महिं सागरकुण्डलं । वसुन्धरं आवससि अमच्च परिवारितो ॥३००।। चातुरन्तो महारठ्ठो विजितावी महब्बलो। पथव्या एक राजासि यसो ते विपुलं गतो ॥३०१।। सोळ सित्थिसहस्सानि आमुत्तमणिकुण्डला । नाना जनपदा नरियो देव कञपमा सभा ।।३०२।। एवं सब्बंगसम्पन्नं सब्ब काम समिद्धिनं । सुखितानं पियं दीघं जीवितं आहु खत्तिय ।।३०३॥ अथ त्वं केन वण्णेन केन वा पन हेतुना। पण्डितं अनुरक्खन्तो पाणं चजसि दूच्चजं ॥३०४॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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