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________________ कथानुयोग — चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३६७ छोटे भाई के अवगुण बतलाते हुए कहा - " मैंने अपने भाई राज्यों का पराभव कर मैं बहाँ से धन लाया, उसका खजाना मैं धनुर्धारी योद्धाओं में उत्तम हूँ, शौर्य-वीर्यशाली हूँ, तीक्ष्ण मन्त्री हूँ- -सत्वरमन्त्रणाकारी हैं, मैंने ही इस राज्य को सुख समृद्धिमय बनाया, यह सोचकर यह छोकरा अपने को बहुत मानता है, मेरी उपेक्षा करता है, अब यह पहले की ज्यों मुझसे मिलने भी नहीं आता, इस अपराध के कारण मैं जल-राक्षस को इसकी बलि दूंगा ।" " भरा, परिव्राजिका बोली - "यह तुम्हारा भाई तो इन त्रुटियों से युक्त है, पर, तुम्हारा धनशेखर तो तुम्हारे प्रति बड़ा स्नेहशील है, उपकारशील है । तुम तथा धनशेखर दोनों एक ही समय में उत्पन्न हुए, दोनों पाञ्चालदेशीय हो, दोनों एक दूसरे के सहायक हो- एक दूसरे के संकट में साहाय्य करने वाले हो, दोनों समान आयु के हो, वह तुम्हारा सदा अनुकरणअनुसरण करता है, तुम्हारे दुःख में अपने को दुःखित एवं सुख में सुखित मानता है, वह अहर्निश तुम्हारे सभी कार्य करने को उत्सुक तथा उत्साहित रहता है, सहयोगी रहता है, तुम ऐसे मित्र की जल राक्षस को बलि क्यों दोगे ? २ राजा ने अपने मित्र धनुशेखर के अवगुण बतलाते हुए कहा – “आर्ये ! मेरा मित्र शेखर पहले बाल्यावस्था में जिस प्रकार मेरे साथ हास-परिहास करता रहा है, आज भी यह न सोचता हुआ कि मैं इतने बड़े राजा के पद पर प्रतिष्ठित हूँ, पहले की ज्यों हासपरिहास करता है, जिससे मेरी प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचती है। मैं जब एकान्त में अपनी पत्नी से भी वार्तालाप करता हूँ तो भी यह बिना सूचना दिये ही वहाँ आ जाता है । इस कारण मैं भाई के बाद इस अनादरशील, अहीक — लज्जारहित मित्र की जल- राक्षस को बलि दूंगा । 113 तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] राजा ब्रह्मदत्त ने अपने के राज्य को बढ़ाया, अन्यान्य १. मयोचिता जानपदा आनीता च पटिग्गहं । आभतं पर रज्जेहि अभिट्ठाय बहुं धनं ॥ २८६ ॥ धनुग्गहानं पवरो सूरो तिरिवणमन्ति च । मयायं सुखितो राजा अति मञ्ञति दारको ॥ २६०॥ उपट्ठानम्प मे अय्ये न सो एति यथा पुरे । भातरं तेन दोसेन दज्जाहं दकरक्खिनो ॥२१॥ २. एकरत्तेन उभयो तुवञ्च धनुसेख वा । उभो जातेत्थ पञ्चाला सहाया सुसमावया ॥२६२॥ चरिया तं अनुबन्धित्यो एकदुक्ख सुखो तव । उस्सुको ते दिवारति सम्बकिच्च सुव्यावटी । सहायं केन दोसेन दज्जासि दकरक्खिनो ॥२९३॥ ३. चरियाय अयं अय्ये पजग्धित्थो मया सह । अज्जापि तेन वण्णेन अतिवेलं पजग्घति ||२४|| उब्बरियापि मे अय्ये मन्तयामि रहोगतो । अनामन्ता परिसति पुब्बे अप्पटिवेदिनो ||२५|| लद्धवारो कतो कासो अहिरिकं अनादरं । सहायं तेन दोसेन दज्जाहं दकरविखनो ॥२६६॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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