SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ __ यह सुनकर ब्रह्मदत्त बोला-"आर्ये ! मैं जानता हूँ, मेरी माता में अनेक गुण हैं। उसके मुझ पर बहुत उपकार हैं, किन्तु, उसमें अवगुण भी हैं-यह युवा नारियों के सदृश आभूषण धारण करती है, जो इसके धारण करने योग्य नहीं होते। द्वौवारिकों-द्वारपालकों या प्रहरियों तथा सेनाधिकारियों के साथ हास-परिहास करती अघाती नहीं । मुझसे विरोध रखने वाले राजाओं के यहाँ मुझसे पूछे बिना-गुप्त रूप में दूत भेजती रहती है। इन्हीं दोषों के कारण सबसे पहले मैं इसी की बलि दूंगा।" परिवाजिका ने कहा- "राजन् ! ठीक है, माता की तो आप इस दोष के कारण बलि देंगे, पर आपकी पत्नी नन्दादेवी तो सर्वथा गुणमयी है, नारियों में श्रेष्ठ है, अत्यन्त मधुर भाषिणी है, आपकी अनुगामिनी है, उत्तम आचार युक्त है, छाया की ज्यों आपके पीछे चलती है, कभी कुपित नही होती, प्रज्ञावर्ती है, पण्डिता- विवेकशीला है, राज्यकार्य आदि लौकिक प्रयोजनों को सूक्ष्मता से, गहराई से समझने वाली है। फिर माता के बाद जल-राक्षस को उसकी बलि क्यों देंगे !"२ । राजा ने महारानी के अवगुण बतलाते हुए कहा- “महारानी नन्दादेवी मुझे कामविलास में अत्यन्त आसक्त तथा परिणाम-विरस भोग वासना के वशगत जानकर मुझसे पुत्र-पुत्रियों को प्रदत्त आभूषणों, अन भ्यर्थनीय -न मांगने योग्य अलंकारों की माँग करती है। कामरागासक्त मैं छोटी बड़ी सब प्रकार की वस्तुएं, धन उसे देता हूँ। अदेय-न देने योग्य वस्तुएं भी जो वह मांगती है, मैं उसे दे देता हूं। वैसा कर मैं बाद में दुर्मन -खिन्न होकर पछताता हूँ। इस अपराध के कारण मैं अपनी पत्नी की राक्षस को बलि दूंगा।"3 यह सुनकर भेरी परिव्राजिका बोली-"महारानी की बलि तो तुम इस कारण दोगे, किन्तु, अपने भाई तीक्ष्ण-मन्त्री कुमार की, जिसने तुम्हारे राज्य को बढ़ाया, जिसने अन्यन्य राज्यों का पराभव कर विपुल धन प्राप्त किया, तुम्हारा खजाना भरा, जो धनुर्धारी योद्धाओं में उत्तम है, शौर्य वीर्यशाली है तीक्ष्ण-मन्त्री-सत्वर मन्त्रणा-निपुण है, जल-राक्षस को उसकी बलि किस दोष के कारण दोगे ?"४ १. दहरा विय अलकारं धारेति अपिलन्धनं। दोवारिके अनीकट्ठे अतिवेलं पजग्धति ॥२८॥ ततोपि पटिराजानं सयं दूतानि सासति । मातरं तेन दोसेन दज्जाहं दकरक्खिनो ॥२८२॥ २. इत्थिगुम्बस्स पवरा अच्चन्त पियवादिनी। अनुग्गता सीलवती छाया व अनपायिनी ।।२८३॥ अक्कोधना पावती पण्डिता अत्थदस्सिनी। उब्बरि केन दोसेन दज्जासि दकरक्खिनो ॥२८४।। ३. खिड्डारतिसमापन्नं अनत्थ वसमागतं । सा मं सकामं पुत्तानं अयाचं याचते धनं ॥२८॥ सोहं ददामि सारत्तो लहुं उच्चावचं धनं । सुदुच्चज चजित्वान पच्छा सोचामि दुम्मनो। उब्बरिं तेन दोसेन दज्जामि दकरक्खिनो ।।२८६॥ ४. येनोचिता जानपदा आनीता च पटिग्गहं । आभतं पररज्जेहि अभिट्ठाय बहंधनं ॥२७॥ धनग्गहानं पवरं सूरं तिख्रिणमन्तिनं । भातरं केन दोसेन दज्जासि दकरक्खिनो ॥२८॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy