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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३६५
पकड़ ले, मनुष्यों की बलि चाहे, तब तुम्हें छोड़ने को राजी हो, तो तुम किस क्रम से उसे मनुष्य-बलि दोगे, उसके भक्षणार्थ किस क्रम से इन्हें उसके हाथ में सौंपोगे ?"
राजा ने यह सुना । इस पर गौर किया और वह अपना अभिमत व्यक्त करते हुए बोला-"सबसे पहले मैं अपनी माता की बलि दूंगा। यदि जलराक्षस इतने से परितुष्ट न हो, और मांग करे तो फिर पत्नी की, फिर भी उसकी मांग रहे तो भाई की, उसके बाद अपने मित्र की, तदनन्तर राजपुरोहित की, इतने पर भी उसे परितोष न हो तो फिर मैं अपनी स्वयं की बलि दूंगा। महौषध को बलि के रूप में राक्षस को कदापि नहीं सौंपूंगा।' मेरा जीवन चला जाए, कोई हर्ज नहीं। मैं चाहता हूँ, महौषध जीवित रहे। वह बहुत उपयोगी पुरुष है।"
सर्वातिशायी महौषध
___ इससे परिवाजिका ने समझ लिया कि राजा ब्रह्मदत्त के मन में महौषध के प्रति सच्चा सौहार्द है । वास्तव में वह उसकी गरिमा, उपयोगिता पहचानता है। परिवाजिका ने सोचा-इतने मात्र से महौषध के गुणों की ख्याति नहीं होगी। अच्छा हो, जन-समुदाय के बीच इस के गुणों का आख्यान किया जाए । प्रसंगोपात्तरूप में राजा अन्य पाँचों के अवगुण कहेगा, महौषध के गुण स्थापित करेगा । जिस प्रकार चन्द्र आकाश में देदीप्यमान होता है उसी प्रकार इससे महौषध के गुण लोक में प्रकाशित होंगे । यह विचार कर परिवाजिका ने रानियों, दासियों, व्यवस्थापक व्यवस्थापिकाओं कर्मचारियों- अन्तःपुर से सम्बद्ध सभी व्यक्तियों को एकत्र करवाया। उनके बीच उसने राजा से पुनः वही प्रश्न पूछा, जो उससे एकान्त में पूछा था । राजा ने उसका ठीक वैसा ही उत्तर दिया, जैसा एकान्त में दिया था।
परिवाजिका ने राजा से कहा--"महाराज ! तुम कह रहे हो कि मैं सबसे पहले जल-राक्षस को अपनी माता की बलि दूंगा। माता का जगत् में बड़ा महत्त्व है, फिर तुम्हारी माता तो अन्य माताओं से और विशिष्ट है । तुम्हारे पर उसके बहुत उपकार हैं। तुमको इसने जन्म दिया, तुम्हारा पालन-पोषण किया, लम्बे समय तक तुमको इसने अनुग्रह दिया, स्नेह दिया, तुम्हारे जीवन एवं सुख को सुरक्षित रखने का सदा प्रयत्न किया। ऐसी माता, जिसने तुमको गर्भ में धारण किया, जिसने तुमको छाती से लगाये रखा, जो एक प्रकार से तुम्हारे लिए प्राणदात्री है, फिर किस दोष के कारण उसे तुम जल-राक्षस को बलि के रूप में दोगे ?"3
१. स चे वो वुरहमानानं सत्तन्नं उदकण्णवे ।
मनस्स-बलिमेसानो नावं गण्हेय्य रक्खसो। __ अनुपुब्ब कथ दत्वा मुञ्चेसि दकरक्खिनो ॥२७७।। २. मातरं पठम दज्ज भरियं दत्वान भातरं। ततो सहायं दत्वान पञ्चमं दज्जं ब्राह्मणं ।
छटठा हंदज्जमत्तानं नैव दज्ज महोसधं ॥२७८।। ३. पोसेता ते जनेन्ती च रीधरत्तानुकम्पिका ।
छम्भी तयि पटुट्ठस्मि पण्डिता अत्थदस्सिनी । अञ्ज उपनिसं कत्वा वधा तं परिमोचयि ।।२७६।। तां तादसिं पाणददि ओरसं गब्भघारिणि । मातरं केन दोसेन दज्जासि दकरक्खिनो॥२८॥
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