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तत्त्व :भाचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक :महा उम्मग्ग जातक ३६१
राजा ब्रह्मदत्त ने जब यह सुना, वह बहुत हर्षित हुआ। उसने विदेहराज को उत्तोत्तम अनेक उपहार भिजवाये । वह नन्दा देवी के साथ सुखपूर्वक रहने लगा।
मिथिला में विदेहराज अपनी पटरानी पाञ्चालचण्डी के साथ बड़ा सुखी था। पाञ्चालचण्डी उसे बहुत प्रिय, कान्त एवं इष्ट थी। दोनों में परस्पर अत्यन्त प्रेम था। एक वर्ष बाद पाञ्चालचडी के पुत्र हुआ। दश वर्ष पश्चात् विदेहराज का स्वर्गवास हो गया।
महौषध का पाञ्चाल-गमन
बोधिसत्त्व ने राजकुमार को राज्य-सिंहासन पर बिठाया, उसे राजछत्र धारण करवाया। फिर उससे कहा - "देव ! अब मैं अपने पूर्व संकल्प के अनुसार तुम्हारे नाना राजा चूळ नी ब्रह्मदत्त के पास जाऊँगा।"
बाल नरेश ने उससे कहा-"पण्डित ! मैं अभी बच्चा हूं। तुम मुझे छोड़कर मत जाओ। मैं तुम्हारा अपने पिता के सदृश आदर करता रहूँगा। तुम्हारे प्रति श्रद्धावान् रहूँगा।" राजमाता पाञ्चालचण्डी ने भी महौषध से अनुरोध किया-"पण्डित ! तुम मत जाओ। तुम चले जाओगे तो हमारे लिए कौन आश्रय-स्थान होगा? कौन मार्ग-दर्शक होगा?"
महौषध ने इस पर चिन्तन किया, उसने मन में अनुमव किया- मैं राजा ब्रह्मदत्त के समक्ष वायदा कर चुका हूँ । आवश्यक है, मैं उसका पालन करूं । अस्तु, जो भी स्थिति हो मुझे जाना चाहिए। यह विचार कर उसने अन्ततः जाने का निश्चय किया। वह अपने परिजनों एवं परिचारकों साथ लिये जब प्रस्थान करने लगा तो मिथिला के लोग शोकविह्वल हो गये, रुदन-क्रन्दन करने लगे। वह सबको धीरज बँधाता हुआ वहाँ से चल पड़ा। चलते-चलते वह यथासमय उत्तर पाञ्चाल पहुँचा । राजा ब्रह्मदत्त को जब उसके आने की सूचना मिली तो वह उसके स्वागतार्थ सामने आया। उसका आदर-सत्कार किया, समारोह पूर्वक उसका नगर में प्रवेश कराया । उसे आवास हेतु विशाल भवन दिया। पर, उसे पहले जो अस्सी गाँव जागीर के रूप में दिये थे, उनके सिवाय और कुछ भेंट में नहीं दिया।
भेरी परिवाजिका
उस समय वहाँ भेरी नामक एक परिव्राजिका–संन्यासिनी थी। वह राजभवन में भोजन करने आती थी। वह विदुषी थी, प्रजाशीला थी। उसे बोधिसत्त्व को देखने का कभी अवसर नहीं मिला था। उसके सम्बन्ध में उसने मात्र इतना सा सुन रखा था कि वह अधिकांशतः राजा की सन्निधि मे रहता है। बोधिसत्त्व को भी कभी उसे देखने का मौका नहीं मिला था। केवल इतना ही सुन रखा था, भेरी नामक एक परिवाजिका है, जो पण्डिता है, राजभवन में भोजन ग्रहण करती है।
मरदादेवी द्वारा प्रतिशोध ।
राजा की पटरानी नन्दादेवी मन-ही-मन बोधिसत्त्व से नाराज थी। उसका आरोप था कि उसके ही कारण उसे पति-विरह का दुःख झेलना पड़ा। नन्दादेवी राजा और बोधिसत्त्व के बीच भेद डालना चाहती थी। उसके मन में प्रतिशोध का भाव था। उसने राजा की चेहती पाँच स्त्रियों को यह कार्य सौंपा-तुम बोधिसत्त्व पर आरोप गढ़ो, राजा को बताओ, जिससे उसका उसकी ओर से मन फट जाए। दोनों के बीच दुराव पैदा हो जाए। तदनुसार वे स्त्रियां इस फिराक में रहने लगीं।
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