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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
नगर तथा जनपद के लोग तो स्वयं ही महौषध पण्डित का स्वागत सम्मान करने की हार्दिक आकांक्षा लिये थे । उन्होंने जब राज घोषणा सुनी तो वे अत्यन्त प्रसन्न हुए और उसका खूब आदर-सत्कार किया ।
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अन्तःपुर के लोग — रानियों की ओर से प्रतिनिधि, क्षत्रिय कुमार, वैश्य, ब्राह्मण, गजारोही, अश्वारोही, रथारोही तथा पदाति सैन्य अधिकारी ; सभी उत्तमोत्तम विपुल खाद्य, पेय पदार्थ लाये, महौषध को उपहृत किये ।
जनपदवासी, निगमवासी आदि अनेकानेक लोग इस समारोह में सम्मिलित हुए, महौषध को श्रेष्ठ खाद्य, पेय पदार्थ भेंट किये ।
महौषध पण्डित को समागत देख सभी बड़े हर्षित थे । लोगों ने उसके ऊपर वस्त्रक्षेप किया — वस्त्र फिराकर, घुमाकर, उंवारकर शुभ-कामना व्यक्त की ।
प्रतिप्रेषण
उत्सव समाप्त हुआ । महौषध राजभवन में पहुँचा । उसने विदेहराज से निवेदन किया- "महाराज ! चूळनी ब्रह्मदत्त की माता तलताल देवी, पटरानी नन्दादेवी तथा राजकुमार पाञ्चालचण्ड को शीघ्र उत्तर पाञ्चाल भेज दें । "
राजा ने कहा – “तात ! जैसा तुम उचित समझो, इन तीनों को भेजने की व्यवस्था करो। इनका अत्यधिक सम्मान करो, वहाँ से तुम्हारे साथ आई सेना का भी आदर-सत्कार करो। इन तीनों को बड़े ठाट-बाट और शान के साथ यहाँ से विदाई दो । सुरक्षा और मार्गदर्शन के लिए अपने आदमी साथ भेजो ।"
राजा के कथनानुरूप महौषध ने सब किया । सबको सम्मानपूर्वक रवाना किया । राजा ब्रह्मदत्त ने महौषध को जो एक सौ स्त्रियाँ तथा चार सौ सेविकाएँ भेंट के रूप में दी थीं, महौषध ने उन्हें यथावत रूप में पटरानी नन्दादेवी के साथ वापस भेज दिया ।
वे सभी यथा समय उत्तर पाञ्चाल नगर पहुँच गये । राजा ब्रह्मदत्त उन्हें प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने अपनी माता से पूछा – “माँ ! क्या विदेहराज ने तुम्हें आदरसम्मान के साथ रखा ? क्या तुम्हारी सेवा टहल उचित रूप में होती रही ?"
राजमाता ने कहा - तात ! विदेहराज ने मुझे देवता के तुल्य समझा । मेरे साथ बड़ा श्रद्धापूर्ण व्यवहार किया, मेरी अच्छी तरह सेवा-शुश्रूषा की । नन्दी देवी का भी अपनी माता के सदृश सम्मान रखा, आदरपूर्वक उसकी सेवा की। राजकुमार पाञ्चालचण्ड को अपने छोटे भाई के समान स्नेह दिया । उसे प्यार से रखा । "
१. ओरोधा च कुमारा च वेसियाना च ब्राह्मणा ।
बहुं अन्नञ्च पाणञ्च पण्डितस्साभिहारयुं ॥ २७३ ॥ हत्यारूढा अनीकठ्ठा रथिका पत्तिकारिका ।
बहुं अन्नञ्च पाणञ्च पण्डितस्साभिहारयुं ॥। २७४ ।। समागता जानपदा नेगमा च समागता । बहुं अन्नञ्च पाणञ्च पण्डितस्साभिहारयुं ।। २७५ ।। बहुजनोपसन्नोसि दिस्वा पण्डितमागते । पण्डितम् अनुपते वेळुक्खेपे अवत्तथ ।। २७६ ।।
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