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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३५६ महौषध ने उत्तर देते हुए कहा - " 'विदेहराज ! मैंने उनकी राजनीतिक व कूटनतिक युक्तियों को अपनी राजनीतिक, कूटनीतिक युक्तियों द्वारा तथा उनकी मन्त्रणाओं को अपनी मन्त्रणाओं द्वारा निरस्त किया। अपने प्रभाव से राजा को इस प्रकार आवृत कर लिया, प्रभावापन्न कर लिया, जैसे जम्बूद्वीप को सागर ने आवृत कर रखा है ।"" विदेहराज ने जब महौषध से यह सुना तो उसे अन्तस्तोष हुआ । महौषध ने विदेहराज द्वारा दिये गये उपहारों का जिक्र करते हुए कहा - "राजा ब्रह्मदत्त ने मुझे एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ दीं । काशी जनपद के अस्सी गाँवों की जागीर दी । चार सौ सेविकाएँ तथा एक सौ स्त्रियाँ प्रदान कीं । मैं समस्त सेना लिये प्रसन्नतापूर्वक यहाँ आ गया ।"२ महौषध ने कहा - "पाञ्चालराज ने अपनी पुत्री व तुम्हारी पटरानी पाञ्चालचण्डी के लिए अनेक उपहार भेजे हैं ।" महौषध ने वे उपहार राजा को सौंप दिये । विदेहराज बहुत उल्लसित हुआ । उसने महौषध की श्लाघ्यता प्रकट करते हुए कहा – “सेनक ! पण्डितों के साथ रहना, उनका सान्निध्य प्राप्त करना वास्तव में बहुत आनन्दप्रद होता है । देखते हो, पिंजरे में बन्दी बने पक्षी तथा जाल में ग्रस्त मत्स्य की ज्यों हमको महौषध पण्डित ने अपने बुद्धि-बल द्वारा शत्रु के चंगुल से छुड़ा दिया । "3 सेनक ने भी राजा के कथन का समर्थन करते हुए उसने कहा - "राजन् ! ऐसा ही है । पण्डित बड़े हितकर होते हैं। यथार्थ है, जैसा आप कह रहे हैं, पिंजरे में बन्दी बने पक्षी तथा जाल में ग्रस्त मत्स्य की ज्यों हमको महौषध पण्डित ने शत्रु के चंगुल से छुड़ा दिया।”* सप्त दिनोत्सव राजा ने महौषध के आने की खुशी में नगर में सात दिन तक उत्सव मनाने की घोषणा करवाई । घोषणा में यह कहलवाया - "जिन-जिन का मेरे प्रति प्रेम है, आत्मीयता है वे सब महौषध के प्रति अपना आदर भाव प्रदर्शित करें, उसे सत्कृत करें, सम्मानित करें | गायकवादक वीणा बजाएँ, ढोल बजाएँ, दण्डिम – दो डंडों से बजने वाले वाद्य विशेष - ठामकियाँ बजाएँ, मागध - स्तुतिकार, शंख-ध्वनि करें - शंख बजाएं, नगारची नगारे बजाएं । ५ १. अत्थं अत्थेन वेदेह ! मन्तं मन्तेन खत्तिय ! परिवारयिस्सं राजानं जम्बुदीपं व सागरो ॥ २६८ ॥ २. दिन्नं निक्खसहस्सं मे गामासीति च कासिसु । दासीसतानि चत्तारि दिन्नं भारियासतञ्च मे । सब्बं सेनमादाय सोत्थिनम्हि इधागतो ॥ २६६ ॥ ३. सुसुखं वत संवासो पण्डितेहीति सेनक ! पक्खीव पञ्जरे बद्धे मच्छे जालगतेरिव । अमित्तहत्य हत्थगते मोर्चायि नो महोसघो ॥ २७० ॥ ४. एवमेतं महाराज ! पण्डिता हि सुखावहा । पक्खीव पञ्जरे बद्धे मच्छे जालगतेरिव । अमित्त हत्थत्थगते मोचयि नो ५. आहञ्चन्तु सब्बवीणा भेरियो नदन्तु मागधा संखा वग्गु Jain Education International 2010_05 महोसधो ॥ २७१ ॥ देण्डिमानि च । वदतु दुन्दुभि ।। २७२ ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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