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________________ ३५८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : ३ से अनुगामी पुरुषों के साथ महौषध पण्डित के आने की सूचना तभी दे दी, जब वह नगर से तीन योजन दूर था । सेनक अपने आदमियों से यह समाचार प्राप्त कर राजभवन में गया । विदेहराज को इससे अवगत कराया । राजा महल के ऊपर की मंजिल पर गया । झरोखे से देखा तो प्रतीत हुआ, बहुत बड़ी सेना लिये कोई बढ़ा आ रहा है । उसने अपने मन में विचार किया, महौषध के साथ बहुत कम सेना थी । यह तो बड़ी विशाल सेना है, महौषध की कैसे हो ? उसे संशय हुआ, कहीं पाञ्चालराज चूळनी ब्रह्मदत्त तो नहीं आ गया है। उसने भयाक्रान्त होकर सेनक से पूछा- - "सेनक पण्डित ! गजों, अश्वों तथा पदातियों से युक्त यह बहुत बड़ी सेना दृष्टिगोचर हो रही है । इस चातुरंगिणी सेना का स्वरूप बड़ा भीषण है, भयावह है। तुम क्या मानते हो — इस सम्बन्ध में तुम्हारा क्या विचार है, क्या मन्तव्य है ? "" सेनक ने उत्तर दिया – “राजन् ! आपके लिए यह निश्चिय ही अत्यन्त हर्ष का विषय है । दृश्यमान समग्र सेना सहित महौषध पण्डित प्रसन्नता पूर्वक, कुशलता-पूर्वक आ रहा है। राजा के मन की शंका नहीं मिटी । वह बोला - " पण्डित ! महौषध के पास तो बहुत थोड़ी सेना थी । यह तो उससे कई गुनी अधिक है ।" सेनक बोला "पण्डित ने राजा ब्रह्मदत्त को परितुष्ट कर इतनी विशाल सेना प्राप्त कर ली होगी । इसमें संशय की क्या बात है ?" विदेहराज को इस उत्तर से कुछ परितोष हुआ । उसने नगर में घोषणा करवाई"महौषध पण्डित आ रहा है। उसके स्वागत में नगर को खूब सजाओ । नागरिकों ने जैसा राजा का आदेश था, सोत्साह वैसा किया। " मिथिला आगमन महौषध पण्डित नगर में प्रविष्ट हुआ। राजभवन में गया । राजा को प्रणाम किया । राजा ने उसे सस्नेह छाती से लगाया । उत्तम आसन पर बिठाया । कुशल समाचार पूछे और कहा -"" -" जैसे चार मनुष्य मृत पुरुष को — शव को मसान में छोड़कर चले आते हैं, हम तुम्हें वैसे ही काम्पिल्य राष्ट्र की राजधानी उत्तर पाञ्चाल नगर में छोड़कर चले आये । पण्डित ! तुमने अपने आपको किस उपाय से, किस युक्ति से, किस विधि से मुक्त करायाअपना छुटकारा कराया है। 3 १. हत्थी अस्सा रथा पत्ती सेना पदिस्सते महा । चतुरंगिनी मिसरूपा किन्नु मञ्ञन्ति पण्डित !! २६४ ॥ २. आनन्दो ते महाराज ! उत्तमो पतिदिस्सति । सब्बं सेनंगमादाय सोत्थि पत्तो महोधो ।। २६५ । चतुरो जना । ३. यथापेतं सुसानास्मि छड्डेत्वा एवं कम्पल्लिये त्यम्ह छड्डयित्वा इधागता ।। २६६ ।। वणेन केन वा पन हेतुना । अथ केन वा अत्तानं परिमोचयि ॥ २६७ ॥ Jain Education International 2010_05 त्वं केन अत्थजातेन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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