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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : ३
से अनुगामी पुरुषों के साथ महौषध पण्डित के आने की सूचना तभी दे दी, जब वह नगर से
तीन योजन दूर था ।
सेनक अपने आदमियों से यह समाचार प्राप्त कर राजभवन में गया । विदेहराज को इससे अवगत कराया । राजा महल के ऊपर की मंजिल पर गया । झरोखे से देखा तो प्रतीत हुआ, बहुत बड़ी सेना लिये कोई बढ़ा आ रहा है । उसने अपने मन में विचार किया, महौषध के साथ बहुत कम सेना थी । यह तो बड़ी विशाल सेना है, महौषध की कैसे हो ? उसे संशय हुआ, कहीं पाञ्चालराज चूळनी ब्रह्मदत्त तो नहीं आ गया है। उसने भयाक्रान्त होकर सेनक से पूछा- - "सेनक पण्डित ! गजों, अश्वों तथा पदातियों से युक्त यह बहुत बड़ी सेना दृष्टिगोचर हो रही है । इस चातुरंगिणी सेना का स्वरूप बड़ा भीषण है, भयावह है। तुम क्या मानते हो — इस सम्बन्ध में तुम्हारा क्या विचार है, क्या मन्तव्य है ? ""
सेनक ने उत्तर दिया – “राजन् ! आपके लिए यह निश्चिय ही अत्यन्त हर्ष का विषय है । दृश्यमान समग्र सेना सहित महौषध पण्डित प्रसन्नता पूर्वक, कुशलता-पूर्वक आ रहा है।
राजा के मन की शंका नहीं मिटी । वह बोला - " पण्डित ! महौषध के पास तो बहुत थोड़ी सेना थी । यह तो उससे कई गुनी अधिक है ।"
सेनक बोला "पण्डित ने राजा ब्रह्मदत्त को परितुष्ट कर इतनी विशाल सेना प्राप्त कर ली होगी । इसमें संशय की क्या बात है ?"
विदेहराज को इस उत्तर से कुछ परितोष हुआ । उसने नगर में घोषणा करवाई"महौषध पण्डित आ रहा है। उसके स्वागत में नगर को खूब सजाओ । नागरिकों ने जैसा राजा का आदेश था, सोत्साह वैसा किया।
"
मिथिला आगमन
महौषध पण्डित नगर में प्रविष्ट हुआ। राजभवन में गया । राजा को प्रणाम किया । राजा ने उसे सस्नेह छाती से लगाया । उत्तम आसन पर बिठाया । कुशल समाचार पूछे और कहा -"" -" जैसे चार मनुष्य मृत पुरुष को — शव को मसान में छोड़कर चले आते हैं, हम तुम्हें वैसे ही काम्पिल्य राष्ट्र की राजधानी उत्तर पाञ्चाल नगर में छोड़कर चले आये । पण्डित ! तुमने अपने आपको किस उपाय से, किस युक्ति से, किस विधि से मुक्त करायाअपना छुटकारा कराया है। 3
१. हत्थी अस्सा रथा पत्ती सेना पदिस्सते महा । चतुरंगिनी मिसरूपा किन्नु मञ्ञन्ति पण्डित !! २६४ ॥
२. आनन्दो ते महाराज ! उत्तमो पतिदिस्सति । सब्बं सेनंगमादाय सोत्थि पत्तो
महोधो ।। २६५ । चतुरो जना ।
३. यथापेतं सुसानास्मि छड्डेत्वा
एवं कम्पल्लिये त्यम्ह छड्डयित्वा इधागता ।। २६६ ।। वणेन केन वा पन हेतुना ।
अथ
केन वा
अत्तानं परिमोचयि ॥ २६७ ॥
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त्वं केन अत्थजातेन
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