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________________ तव : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग - चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक विदाई : प्रस्थान राजा ने सप्ताह पर्यन्त महौषध पण्डित का खूब आदर-सत्कार किया । तत्पश्चात् उसने उसे विदेह जाने की स्वीकृति दी, उसने कहा - " महौषध ! मैं तुम्हें विदाई की वेला में एक सहस्र स्वर्ण मुद्राएँ भेंट करता हूँ । काशी जनपद के अस्सी गाँवों की जागीर देता हूँ । स्त्रियाँ तथा चार सौ सेविकाएँ प्रदान करता हूँ । पण्डित ! तुम अपनी सेना के साथ प्रसन्नतापूर्वक प्रस्थान करो। "" महौषध ने राजा को सम्बोधित कर कहा - "महाराज ! तुम अपने पारिवारिकजनों की ओर से निश्चिन्त रहो । मैंने अपने स्वामी विदेहराज को यहाँ से प्रस्थान करते समय कह दिया था कि नन्दादेवी का अपनी माता के तुल्य आदर करें, सम्मान रखें, राजकुमार पाञ्चालचण्ड को अपने अनुज के समान स्नेह दें, प्यार के साथ रखें । तुम्हारी पुत्री पाञ्चालचण्डी का मैंने विदहेराज की पटरानी के रूप रत्न - राशि पर बिठाकर अभिषेक कर दिया । मैं राजमाता तलतालदेवी, राजमहिषी नन्दादेवी तथा राजकुमार पाञ्चालचण्ड को जल्दी ही वहाँ से भेज दूंगा ।" राजा ने कहा- "बहुत अच्छा, मुझे विश्वास है, तुम सब यथावत् व्यवस्था कर दोगे ।" राजा ब्रह्मदत्त ने अपनी पुत्री पाञ्चालचण्डी को देने के लिए दासियाँ, दास, बहुमूल्य उत्तम वस्त्र, आभूषण, सोना, चाँदी, अलंकारों से सुशोभित हाथी, घोडे रथ एवं पदाति दिये । उसने कहा - "यह बड़े हर्ष का अवसर है, घोड़ों को दुगुना दाना, चारा दो हाथियों को जितने से वे परितृप्त हों, अन्न, चारा आदि दो । रथारोहियों एवं पदातियों को यथेच्छ, उत्तम खाद्य, पेय पदार्थों द्वारा परितुष्ट करो । " पण्डित तुम गजारूढों, अश्वारूढों, रथारूढों तथा पदातियों के साथ सुखपूर्वक प्रस्थान करो, मिथिला पहुँचो, विदेहराज तुम्हें देखकर प्रसन्न हो । ३ इस प्रकार राजा चूळनी ब्रह्मदत्त ने महौषध को सत्कृत -- सम्मानित किया, उपायन भेंट किये । महौषध पण्डित द्वारा गुप्त रूप में ब्रह्मदत्त के यहाँ नियोजित पुरुष भी उसके साथ हो गये; क्योंकि अब उनका यहाँ दायित्व परिसम्पन्न था । इस प्रकार महौषघ अपने अनेक अनुगामी पुरुषों से घिरा हुआ उत्तर पाञ्चाल से रवाना हुआ । मिथिला की ओर अग्रसर हुआ । ब्रह्मदत्त द्वारा जागीर के रूप में प्रदत्त गाँवों में से जो मार्ग में पड़ते थे, आसपास थे, अपने कर्मचारियों द्वारा वहाँ का कर वसूल करवाता गया; इस प्रकार चलते-चलते वह यथाशीघ्र विदेह राष्ट्र पहुँचा । ३५७ सेनक पण्डित ने मार्ग में अपने आदमी नियुक्त कर व्यवस्था कर रखी थी कि उत्तर पाञ्चाल से कोई भी इधर आए, उसकी सूचना उसको दी जाती रहे । उन्होंने अपने बहुत १. दम्भ निक्खसहस्सं गामासीतिञ्च कासि दासीसतानि चत्तारि दम्मि भरियासतञ्च ते । सव्वसेनं गमादाय सोत्थिं गच्छ महोस ।। २६१॥ २. यावं ददन्तु हत्थीनं अस्सानं द्विगुणं विधं । तप्पेन्तु अन्नपाणेन रथिके पत्तिकारके ॥२६२॥ ३. हत्थी अस्से रथे पत्ती गच्छेवादाय पण्डित ! परसतु तं महाराजा वेदेहो मिथिलं गतं ॥ २६३ ॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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