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________________ ३५६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड:३ राजाओं से ऋजुभाव के साथ क्षमा माँगी, कहा-'नीच पुरुष की संगति के कारण ऐसा दूषित, कुत्सित कार्य करने का मैंने निश्चय किया। तुम लोग इसे भूल जाओ, मुझे इसके लिए माफ कर दो, फिर कदापि मैं ऐसे कलुषित कार्य में नहीं जाऊँगा । वास्तव में मेरी यह गलती थी।" इस प्रकार चूळनी ब्रह्मदत्त का उन राजाओं के साथ मेल-मिलाप हो गया। स्वामीभक्ति का आदर्श राजा ब्रह्मदत्त ने अनेकानेक उत्तमोत्तम खाद्य, पेय पदार्थ मंगवाये। उसने सप्ताह पर्यन्त उन राजाओं के साथ वहाँ सुरंग में ही खाते-पीते, आनन्दोल्लासपूर्वक क्रीडा-विनोद करते प्रवास किया। फिर राजा सबको साथ लिये अपने नगर में संप्रविष्ट हुआ। महौषध का अत्यधिक सम्मान किया। राजा ब्रह्मदत्त अपने सहवर्ती एक सौ राजाओं के साथ प्रासाद के उपरितल पर बैठा । महौषध पण्डित पास में था ही। राजा के मन में यह तीव्र उत्कण्ठा जागी, महोषध पण्डित को वह सदा अपने ही सान्निध्य में रखे ; अतः उसने उसे सम्बोधित कर कहा–'पण्डित ! मैं तुम्हें दुगुनी वृत्ति दूंगा, ग्राम, निगम आदि के रूप में बड़ी जागीर दूंगा, उत्तमोत्तम खाद्य, पेय पदार्थ दूंगा। तुम मेरे ही पास रहो, सांसारिक सुखों का यथेच्छ उपभोग करो। अब वापस विदेह मत जाओ। विदेहराज तुम्हारे लिए इससे अधिक और क्या करेगा? ___ महौषध ने राजा का अनुरोण अस्वीकार करते हुए कहा-'महाराज ! जो धन के लालच में आकर अपने स्वामी का परित्याग कर देता है, उसकी आत्मा स्वयं अपनी भर्त्सना करती है। अन्य लोग भी उसे निन्दनीय समझते हैं; अतः जब तक विदेहराज जीवित है, तब तक मैं किसी अन्य का आदमी-किसी अन्य के यहाँ कार्य नहीं करूँगा।"२ । उसने पून: कहा-"जो धन के लालच में आकर अपने स्वामी का परित्याग कर देता है, उसकी आत्मा स्वयं अपनी भर्त्सना करती है । अन्य लोग भी उसे निन्दनीय समझते हैं; अत: जब तक विदेहराज जीवित है, तब तक मैं किसी अन्य के राज्य में निवास नहीं करूंगा।'' यह सुनकर ब्रह्मदत्त ने कहा-"तो पण्डित ! वायदा करो, जब तुम्हारा राजा इस जगत् में न रहे, तब तुम मेरे यहाँ निवास करना।" महौषध ने कहा-'राजन् ! मैं आपका आदेश शिरोधार्य करता है, यदि जीवित रहा तो अवश्य आऊंगा।" १. वुत्तिञ्च परिहारञ्च दिगुणं भत्तवेतनं। ददामि विपुलं भोगं भञ्ज कामे रमस्सु च। मा विदेहं पच्चगमा कि विदेहो कारिस्सति ।। २५८ ।। २. यो चजेय महाराज ! भत्तारं धनकारणा। उभिन्नं होति गारय्हो अत्तनो च परस्स च। याव जीवेय्य वेदेहो नास्स पुरिसो सिया ।। २५६ ।। ३. यो चजेय महाराज ! भत्तारं धनकारणा। उभिन्नं होति गारव्हो अत्तनो च परस्स च। याव जीवेय्य वेदेहो नास्स विजिते वसे ।। २६० ॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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