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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग – चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३५५
महौषध बोला - "महराज ! यदि मैं चाहूं तो समग्र जम्बू द्वीप के राजाओं को विश्वस्त कर उनके राज्यों पर अधिकार कर सकता हूँ, किन्तु, किन्हीं की हत्या कर हिंसा के जरिये, वैभव, राज्य, ऐश्वर्य प्राप्त करना समीचीन नहीं है । ज्ञानीजन उसे अच्छा नहीं बताते, उसकी प्रशंसा नहीं करते । "
राजा बोला -"पण्डित ! सुरंग में मेरे अधीनस्थ राजा, उनके सैनिक, मेरे सैनिक घबरा रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, चीख रहे हैं। सुरंग का दरवाजा खोलो, उनके प्राण बचाओ ।' महौषध ने सुरंग का द्वार खोल दिया । समस्त सुरंग आलोकमय हो गई। लोगों की जान में जान आई। सभी राजा, जो अपनी-अपनी सेनाओं के साथ सुरंग में बन्द थे, ससैन्य सुरंग से बाहर आये । वे राजा महौषध के पास गये । महौषध राजा ब्रह्मदत्त के साथ ऊपरी
तल पर था ।
राजाओं ने महौषध से कहा - "पण्डित ! तुम्हारे कारण हमारे प्राण बचे हैं। यदि दो घड़ी सुरंग का दरवाजा नहीं खोला जाता तो हम सभी का वहाँ प्राणान्त हो जाता ।" महौषध बोला – “राजाओ ! जरा सुनो, न केवल इस समय ही वरन् इससे पूर्व भी एक ऐसा प्रसंग था, जब तुम सबके सब मारे जाते, किन्तु, मेरे कारण तुम सब बच गये ।' राजा -"पण्डित ! हम नहीं समझे, तुम क्या कह रहे हो ? ऐसा कब हुआ ? महौषध - स्मरण है, केवल हमारे विदेह राज्य के अतिरिक्त समस्त जम्बूद्वीप के राज्यों को अधिकृत कर लेने के पश्चात् पाञ्चाल नरेश ने विजय-पान हेतु मदिरा तैयार करवाई थी ?"
राजा - "हाँ, पण्डित ! हमें स्मरण है ऐसा हुआ था ।'
महौषध - " राजा ब्रह्मदत्त ने इस आयोजन के पूर्व केवट्ट के साथ कुत्सित मन्त्रणा की, निश्चय किया कि मदिरा में एवं मत्स्य -मांस में जहर मिला दिया जाए, जिससे तुम सब उनका सेवन करते ही ढेर हो जाओ। इस षड्यन्त्र के अनुसार मदिरा और मांस में विष मिला दिया गया। अपने गुप्तचरों द्वारा मुझे यह संवाद प्राप्त हुआ । मैंने सोचा, मेरे होते इतने निरपराध लोग निःसहाय की ज्यों मौत के घाट उतारे जाएं, यह सर्वथा अनुचित एवं अवाञ्छित 1 मैंने 'गुप्त रूप में अपने साहसी एवं विश्वस्त योद्धाओं को भेजा । सुरापात्र एवं भोजन-पात्र तुड़वा दिये । भोज्य पदार्थों को इधर-उधर बिखरवा दिया ताकि वे खाने योग्य न रह जाएँ। उनके कुमन्त्रणाजन्य षड्यन्त्र को मैंने तहस-नहस करवा दिया । "
राजाओं ने महौषध के मुँह से जब यह सुना तो उनका हृदय उद्वेग से भर गया । वे क्षुब्ध हो उठे । उन्होंने चूळनी ब्रह्मदत्त से पूछा- - "महाराज ! महौषध जो कह रहा है, क्या वह सत्य है ?"
ब्रह्मदत्त बोला - "महौषध पण्डित जो कह रहा है, वह सर्वथा सत्य है । मैंने केवट्ट का दुष्परामर्श स्वीकार कर ऐसा किया ।"
ब्रह्मदत्त के तन्त्रवर्ती राजा महौषध के प्रति कृतज्ञता से भर गये । बोले - " तुम ही हम सबके परित्रायक हो । तुम्हारे ही कारण हम जीवित रह सके।" उन्होंने सस्नेह उसे छाती से लगा लिया। उसे बहुमूल्य आभूषण भेंट किये। उसका आदर-सत्कार किया ।
ज्यों ही यह अवाञ्छित स्थिति सहसा सामने आई, राजा ब्रह्मदत्त अाप से व्याकुल हो उठा । महौषध ने उसे कहा – “राजन् ! तुम खिन्न न बनो, दुःखित न हो, यह बुरी संगति का नतीजा है । तुम सहृदयतापूर्वक इन राजाओं से क्षमा मांगो।" ब्रह्मदत्त ने
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