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________________ ३५४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड:३ हैं । आनन्दपूर्वक अपनी सेना के साथ विदेहराज के आवास-नगर में प्रवेश करो।" यह कहकर उसने आवास-नगर का दरवाजा खुलवाया। राजा नगर में प्रविष्ट हुआ। महौषध प्रासाद से नीचे उतरा, राजा को प्रणाम किया। अपने परिचरों सहित वह राजा को ससैन्य साथ लिये सुरंग में प्रविष्ट हुआ। सुरंग देवनगर के समान सजी थी, भव्य थी। राजा उसे देखकर अत्यन्त आनन्दित हुआ, आह्लादित हुआ। उसने महौषध की बड़ाई करते हुए कहा-"विदेह राष्ट्र के निवासी बड़े सौभाग्यशाली हैं, जिनके घर में राष्ट्र में महौषध जैसे परम प्रज्ञाशील ज्ञानी-जन निवास करते हैं।" तत्पश्चात् महौषध राजा को सुरंग में निर्मित एक सौ शयनागारों में ले गया। उनमें ऐसी यान्त्रिक व्यवस्था थी कि एक शयनागार का द्वार खोलने पर सबके द्वारा स्वयमेव खुल जाते। एक का द्वार बन्द करने पर सबके द्वार स्वयमेव बन्द हो जाते । राजा सुरंग का अवलोकन करता हुआ आगे-आगे चल रहा था। महौषध पण्डित पीछे-पीछे चल रहा था। समग्र सेना सुरंग में प्रविष्ट थी, सुरंग को देखती हुई चल रही थी। राजा सुरंग से बाहर निकला। उसके बाद महौषध स्वयं बाहर आया। अन्य लोग बाहर निकलें, उससे पूर्व ही उसने सरंग का दरवाजा बन्द करने हेतु संलग्न आगल खींच दी। अस्सी बडे दरवाजे, चौंसठ छोटे दरवाजे, एक सौ शयनागारों के दरवाजे, सैकड़ों प्रकाश-प्रकोष्ठों के दरवाजे एक ही साथ बन्द हो गये। समस्त सरंग नरक की ज्यों घोर अन्धकारमय हो गई। सारी सेना मुरंग में बन्द हो गई । सैनिक भयभीत हो गये। महौषध ने पिछले दिन, जब विदेहराज को रवाना किया था, तब सरंग में प्रविष्ट होते समय जो तलवार रखी थी, उसने उसे उठा लिया और वह वेग एवं पौरुषपूर्वक अठारह हाथ ऊँचा उछला। राजा का हाथ पकड़ा। म्यान से तलवार निकाली। मारने हेतु उद्यत जैसा भाव प्रदर्शित करते हुए, राजा को आतंकित करते हुए पूछा-"महाराज ! बतलाओ समग्र जम्बूद्वीप में किसका शासन है ?" राजा बहुत भयभीत हो गया, बोला--"पण्डित ! समग्र जम्बूद्वीप में तुम्हारा शासन है।" राजा ने सोचा, महौषध अभी मेरा वध कर डालेगा। उससे उसने अभयदान की अभ्यर्थना की। महौषध ने तलवार राजा के हाथ में सौंप दी और कहा-"महाराज ! आपका वध करने के लिए मैंने तलवार नहीं निकाली थी। यह तो केवल अपना प्रज्ञोत्कर्ष, बलोत्कर्ष दिखाने हेतु ही किया। यदि आप मेरा वध करना चाहते हैं, तो इसी खड्ग द्वारा कर डालें, यदि मुझे अभय करना चाहते हैं तो वैसा कर दें आपकी जैसी मर्जी हो, करें।" राजा ब्रह्मदत्त बोला-"तुम कैसी चिन्ता करते हो? निश्चिन्त रहो। मैं तो तुम्हें कब का ही अभयदान दे चुका हूँ।" राजा ब्रह्मदत्त और महौषध पण्डित ने परस्पर निर्वैर-भाव, सख्य-भाव स्थापन हेतु साक्ष्य-रूप में खड़ग का स्पर्श किया। दोनों आपस में संकल्पबद्ध हए, वे आपस में एक-दूसरे के प्रति सर्वदा द्वेषरहित रहेंगे। बोधिसत्त्व की करुणा राजा ब्रह्मदत्त ने सहज भाव से कहा-'महौषध ! तुम इतनी उत्कृष्ट प्रज्ञा के स्वामी हो, फिर तुम किसी राज्य पर अधिकार क्यों नहीं करते ?" १. लाभा वत विदेहानं यस्स मे एदिसा पण्डिता। घरे वसन्ति विजिते यथा त्वं सि महौषध ॥२५७।। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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