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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग — चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३५३ और राजमाता तीनों वापस यहाँ आ जायेंगे । केवल पहुँच जाऊं, मात्र इतना सा विलम्ब है, आश्वस्त रहो ।”
राजा ब्रह्मदत्त बड़ा आश्चर्यान्वित था । विचार करने लगा मैंने अपने नगर में इतनी, भारी सुरक्षा-व्यवस्था की, विदेहराज के आवास-नगर पर विशाल सेना द्वारा घेरा डलवाये रखा । इतने संगीन इन्तजाम के बावजूद राजमहिषी, राजपुत्र, राजपुत्री तथा राजमाता को निकलवा लिया और विदेहराज को सौंप दिया। घेरा डाले अवस्थित इतने सैनिकों को भनक तक न पड़ी, इसने विदेहराज को सपरिजन यहाँ से भगा दिया ।
राजा ने उससे कहा- "महौषध ! तुमने बड़ा करिश्मा किया, मेरे कब्जे में आये शत्रु विदेहराज को भगा दिया। भगाया भी ऐसा कि किसी एक व्यक्ति को भी उसका पता नहीं चला। क्या तुमने देवमाया का — इन्द्रजाल का अभ्यास किया है या तुम नेत्रमोहिनी विद्या— नजरबन्दी जानते हो ? १
यह सुनकर महौषध बोला- "राजन् ! मैं दिव्य माया सीखे हैं । प्राज्ञजन संकट आने पर दिव्य माया द्वारा अनुत्तर प्रज्ञा द्वारा अपने को तथा औरों को विपत्ति से, भय से छुड़ा देते हैं । राजन् ! जो प्राज्ञ पुरुष मन्त्रीगण --- मन्त्रणाकार ऐसी दिव्य माया का अध्ययन करते हैं, अभ्यास करते हैं, वे निश्चय ही अपने आपको संकट से उबार लेते हैं । मेरे पास सन्धिच्छेदक — सेंध लगाने में पटु, सुयोग्य, तरुण कार्यकर्ता हैं, जिन द्वारा निर्मित, सज्जित सुरंग के रास्ते से ही विदेहराज परिजनवृन्द सहित मिथिला गया ।'
मंत्री - बन्ध
चूळनी ब्रह्मदत्त ने जब यह सुना कि विदेहराज सुसज्जित, विभूषित सुरंग द्वारा गया तो उसके मन में यह आकांक्षा उत्पन्न हुई कि मैं भी उस सुरंग का अवलोकन करूं । महौषध तो इंगिताकारवेत्ता था, उसने झट समझ लिया कि राजा सुरंग का पर्यंवेक्षण करना चाहता है। उसने सोचा, मुझे राजा को सुरंग दिखानी चाहिए। उसने सुरंग की ओर संकेत करते हुए कहा - "राजन् ! इस सुरंग को देखिए, यह बड़े सुन्दर रूप में बनी है । इसमें गजों, अश्वों, रथों तथा पदातियों के चित्र बने हैं । आलों में निघापित प्रदीपों से यह आलोकित है । बड़ी सुहावनी है ।
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"यह सुरंग मेरे प्रतिभा रूप सुधाकर तथा विवेकरूप दिवाकर के अभ्युदय के परिणामस्वरूप विरचित हुई है । यह सुसज्जित है, सुशोभित है, इसमें अस्सी बड़े दरवाजे तथा चौंसठ छोटे दरवाजे हैं, सैकड़ों प्रकाशपूर्ण प्रकोष्ठ हैं, शयनाथं निर्मित एक सौ भव्य स्थान
१. दिव्वं अधीयसे माय आकासि चक्खु मोहनं । यो मे अमित्तं हत्थगतं वेदेहं परिमोचयि ॥ २५३॥ २. अधीयन्ति महाराज ! दिव्वमायिध पण्डिता । ते मोचयन्ति अत्तानं पण्डिता मन्तिनो जना ॥ २५४॥ सन्ति माणवपुत्ता मे कुमला सन्धिच्छेदका । देसं कतेन मग्गेन वेदेहो मिथिलं गतो ।। २५५।। ३. इध पस्स महाराज ! उम्मग्गं साधुमापितं । रथानं अथ पत्तिनं । उम्मग्गं साधुनिट्ठितं ॥ २५६ ॥
हत्थीनं अथ अस्सानं आलोकभूतं तिट्ठन्तं
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