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________________ ३५२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ लम्बी, न बहुत ह्रस्व-ठिंगनी है, समुचित विस्तारान्वित, सुन्दर देहयष्टियुक्त है, जो न बालरहित है और न अधिक बालयुक्त है-जो हलके-हलके सुकोमल केशों से मण्डित है, वह अनुपम रूपवती तुम्हारी पटरानी नन्दादेवी इस मार्ग द्वारा मिथिला चली गई है।" महौषध द्वारा रानी के रूप-लावण्य का जो वर्णन किया गया, उसे सुनकर ब्रह्मदत्त विमुग्ध हो गया। वह मन-ही-मन कहने लगा-वह इतनी सौन्दर्यवती है, इस दृष्टि से उसने उसे कभी देखा ही नहीं। यों सोचते हुए राजा के मन में रानी के प्रति अत्यधिक प्रेमानुराग का उद्रेक हुआ। महौषध ने राजा की मुख-मुद्रा से तत्काल यह समझ लिया। महौषध ने ब्रह्मदत्त को सम्बोधित कर कहा-“सौभाग्यशाली राजन् ! जरा विचार कर लो, क्या तुम अपनी प्रियतमा नन्दादेवी के मरण से आनन्दित होगे? यह भी समझ लो, मैं और नन्दादेवी दोनों एक ही साथ यमलोक के अतिथि बनेंगे ।।२।। बोधिसत्त्व ने महारानी नन्दादेवी की ही प्रशस्ति का आख्यान किया, औरों का नहीं इसका कारण स्पष्ट है- जगत् में प्राणी मात्र को सर्वाधिक प्रिय उसकी पत्नी होती है।, उसकी सबसे ज्यादा आशक्ति उसी में होती है। उसकी याद आते ही उसके और पुत्र, पुत्री सहज ही याद आ जाते हैं। राजमाता तो वृद्धा थी, जीवन का भोग कर चुकी थी। उसका वर्णन करना बोधिसत्त्व ने आवश्यक नहीं समझा। हतप्रभ ब्रह्मदत्त बोधिसत्त्व द्वारा माधुर्यपूर्ण स्वर में किये गये वर्णन से ऐसा प्रतीत होने लगा, मानो उसकी प्रियतमा नन्दादेवी उसके समक्ष आकर उपस्थित हो गई हो। राजा ब्रह्मदत्त मन में विचार करने लगा, महौषध पण्डित के सिवाय अन्य कोई भी मेरी रानी मुझं प्राप्त नहीं करा सकता । रानी की स्मृति आने मात्र से राजा का चित्त अत्यधिक व्यथित हो उठा। ___महौषध राजा की भावभंगी पढ़ रहा था। उसने उसकी मनोदशा का झट आकलन कर लिया। उसने उसे धीरज बँधाया-"राजन् ! घबराओ नहीं । तुम्हारी रानी, राजकुमार १. इतो गता महाराज ! नारी सब्बङ्गसोभना । कोसुम्भफलक सुस्सोणी हंसगग्गरभाणिनी ।।२४६।। इतो नीता महाराज ! नारी सब्बङ्गसोभना । कोसेय्यवसना सामा जातरूपसुमेखला ॥२४७।। सुरत्तपादा कल्याणी सुवण्णमणिमेखला। परिवतक्खी सुतनु बिम्बोट्ठा तनुमज्झिमा ॥२४८॥ सुजाता भुजगलट्ठाव वेल्लीव तनुमज्झिमा । दीघस्सा केसा असिता ईसकग्गपवेल्लिता ॥२४६।। सुजाता मिगछापीव हेमन्ताग्गिसिखारिव । नदीव गिरिदुग्गेसु सञ्छन्ना सुद्दवे हि ॥२५०॥ नागनासूरू कल्याणी पठमा तिम्बरुत्थनी। नातिदीघा नाति रस्सा नालोमा नाति लोमसा ॥२५॥ २. नन्दाय नूनं मरणे नन्दसि सिरिवाहन। अहञ्च नूनं नन्दा च गच्छाव यमसाधनं ॥२५२।। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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