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________________ तत्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग – चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३५१ हुए गाँव जैसा, श्मशान जैसा द्युतिहीन, शोभाहीन लग रहा था । यह देखकर मन्त्री वापस राजा के पास आया और बोला- “महाराज ! महौषध ने जो बात कही है, वहाँ की सारी स्थिति वैसी ही है । आपका सारा रनवास कौओं के नगर के समान सूना पड़ा है, बिलकुल खाली है ।"" राजा ब्रह्मदत्त ने अपने परिवार के चारों सदस्यों के, जो उसका सर्वस्व थे, अपहरण की बात सुनी तो वह दुःख से काँप गया। उनके दुःसह वियोग से व्याकुल हो उठा। उसने देखा, इस सारे संकट की जड़ यह गाथापति का बच्चा है । डण्डे से आहत विषैले नाग की ज्यों वह महौषध के प्रति अत्यन्त क्रोधाविष्ट हो गया । कामावेश : दुःसह आघात महौषध ने उसकी मुख- मुद्रा देखी, मनःस्थिति आकलित की तो विचार किया, यह राजा बहुत शक्तिशाली और प्रतापशाली है, कहीं अधिक क्रोधावेश के कारण यह न सोच ले कि उसके पारिवारिक जन गये सो गये, इस दुष्ट, नीच शत्रु से बदला तो लूं । ऐसा सोचकर मेरा यह कहीं वध न करवा डाले । इसलिए यहाँ एक अन्य युक्ति से काम लूं । मैं उसकी पटरानी नन्दादेवी के देह-लावण्य का ऐसा वर्णन करूं, जिस रूप में कभी इसने उसे देखा ही न हो। राजा यह सुनकर उसकी याद में डूब जायेगा । उसके अनिन्द्य सौन्दर्य में विमोहित बना वह सोचेगा, यदि मैं महौषध का वध करवा डालूंगा तो मुझे वह नारीरत्न- परमोत्तम नारी फिर कदापि प्राप्त नहीं हो सकेगी। अपनी पत्नी के प्रति अतिप्रेमासक्त होने के कारण वह मेरा कुछ भी बुरा - बिगाड़ नहीं कर पायेगा । महौषध अपने भवन के झरोखे में खड़ा था। उसने देह पर धारण किये लाल वस्त्र से अपनी स्वर्णाभ-- स्वर्ण की ज्यों आभाभय, दीप्तिमय भुजा बाहर निकाली । उससे उसने महारानी के जाने के मार्ग की ओर इंगित करते हुए उस प्रसंग में उसके सौन्दर्य का बड़ा सरस एवं सुललित वर्णन किया। उसने कहा - " जिसके अंग-अंग से सौन्दर्य छिटकता है, जिसका श्रोणी स्थल - कटि के नीचे का भाग स्वर्णपट्ट के समान विस्तीर्ण और सुन्दर है, जिसकी बोली हंस की ज्यों माधुर्ययुक्त है, जो उत्तम रेशमी वस्त्र धारण किये है, जो स्वर्णवर्णा हैजिसका वर्ण सोने की ज्यों देदीप्यमान है, जो मणियों से जड़ी सोने की करधनी धारण किये है, जिसके पैरों के तलुए लाल - - गुलाबी रंग के हैं, जिसका व्यक्तित्व शुभोद्भासित है, जिसके नेत्र कपोत के नेत्रों के तुल्य हैं, जिसकी देह सौष्ठवयुक्त है, जिसके ओठ बिम्बफल की ज्यों लाल आभामय हैं, जिसकी देह का मध्यभाग- कमर पतली है, जिसकी अंग-रचना बड़ी सुहावनी है, जिसका शरीर साँप की ज्यों लचकदार है, जो स्वर्ण-वेदिका के सदृश मध्यम -- समुचित-संगत आकारयुक्त है, जिसके बाल लम्बे और काले हैं, आगे से कुछ-कुछ घुंघराले, छल्ले - दार हैं, व्याघ्र - शाविका की तरह जिसकी देह सुगठित है, हेमन्त ऋतु की अग्नि ज्वाला के समान जिसके शरीर से प्रभा छिटकती है, छोटे-छोटे स्रोतों में धाराओं के रूप में ऊँचीनीची पहाड़ी भूमि में बहती, इतराती सरिता की ज्यों जो शोभामयी है, जिसकी जंघाएँ हाथ की सूंड जैसी हैं, जो तिम्बस जैसे पीनस्तनवती सुन्दरियों में सर्वोत्कृष्ट है, जो न बहुत ऊँची १. एवमेतं महाराज ! यथा आह महोसधो । सुञ अन्तेपुरं सव्वं काक पट्टनकं यथा ॥ २४५॥ Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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