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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :३
पाञ्चालराज ब्रह्मदत्त ने जब महौषध के मंह से यह सना तो वह विचार करने लगा. यह गाथापति का बच्चा क्या बोल रहा है, जैसी मैं इसे सजा दूंगा, वैसी ही विदेहराज मेरी पत्नी को, पुत्र को, पुत्री को तथा माता को सजा देगा । यह कैसे संभव है ! इसे नहीं मालूम कि मेरी माता, पत्नी एवं बच्चे राज-प्रासाद में भारी पहरे में सर्वथा सुरक्षित हैं । अभी मेरा मौत है, ऐसा सोचकर यह मरण-मय से अपना मानसिक सन्तुलन खो चुका है, झूठा प्रलाप कर रहा है। यह सोचकर पाञ्चालराज ने महौषध के कथन पर भरोसा नहीं किया
महौषध ने पाञ्चाल राज के चेहरे की भाव-भंगिमा से यह समझ लिया कि वह मेरी बात पर भरोसा नहीं कर रहा है। वह सोचता है कि मैं मौत के डर से घबराकर ऐसा प्रलाप-बकवास कर रहा हूँ। उसने पाञ्चाल राज को उद्दिष्ट कर कहा-महाराज ! अपने रनवास को देखो। वह बिलकुल खाली है । तुम्हारी रानी, राजकुमार, राजकुमारी और तुम्हारी माता को सुरंग के मार्ग से निकालकर विदेहराज के सुपुर्द कर दिया गया है।"
राजा ब्रह्मदत्त ने यह सुना, वह विचारने लगा-महौषध बड़े विश्वसनीय शब्दों में यह बात कह रहा है । मैंने रात्रि के समय महारानी नन्दादेवी की चीख भी सुनी थी। महौषध बड़ा मेधावी पुरुष है। इसने जो कहा है, कहीं सत्य न निकले। यह सोचकर राजा के मन बड़ा विषाद पैदा हुआ। वह भीतर ही भीतर धीरज संजोये रहने का प्रयत्न करता रहा। ऊपर से ऐसा प्रदर्शित करता रहा, मानो वह चिन्ताग्रस्त है ही नहीं। उसने अपने मन्त्रियों में से एक को अपने पास बुलाया और उससे कहा-"रनवास में जाओ। मालूम करो-महारानी, राजकुमार, राजकुमारी तथा राजमाता के विषय में महौषध जो कह रहा है, वह सच है या
झठ ?
राजा द्वारा आदिष्ट मन्त्री कर्मचारियों को साथ लेकर राजप्रासाद में गया। उसने दरवाजा खोला, वह भीतर गया। रनवास के प्रहरी हाथ-पैर बंधे पड़े थे। उनके मुंह में कपड़े लूंसे हुए थे। जनानी ड्योढ़ी में रहने वाले कुबड़े, बौने इत्यादि सभी वैसी ही हालत में थे। पाकशाला के बर्तन टूटे-फूटे पड़े थे। खाने-पीने की चीजें इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं। रत्न-भण्डार का द्वार खुला पड़ा था। रत्नों की लूट हो गई थी। खुले हुए दरवाजों और शयनागार की खिड़कियों से कौए भीतर आ रहे थे, इधर-उधर घूम रहे थे। अन्तःपुर उजड़े
स चे मं वितनित्वान वेधयिस्सति सत्तिया। एवं ते पुत्तदारस्स वेदेहो वेध यिस्सति । एवं नो मन्तितं रहो वेदेहेन मया सह ॥ २४० ।। यथा पलसतं चम्म कोन्तिमन्ती सुनिद्रुितं । उपेति तनुताणाय सरानं परिहन्तवे ॥ २४१ ।। सुखावहो दुक्खनुदो वेदेहस्स यसस्सिनो।
मति ते पटिहामि उसं पलसतेन च ।। २४२ ।। १. इध पस्स महाराज ! सुझं अन्तेपुरं तव।।
ओरोधो च कुमारा च तव माता च खत्तिय ! उम्मग्गा नीहरित्वान वेदेहस्सुपनामिता ॥२४३।। २. इध अन्तेपुरं मय्हं गन्त्वान विचिनाथ नं।
यथा इमस्स वचनं सच्चं वा यदि वा मुसा ॥२४४॥
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