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________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मन्ग जातक ३४७ महौषध ने जब ब्रह्मदत्त की बात सुनी तो विचार किया कि यह राजा महौषध पण्डित की करामात नहीं जानता। यह मुझे हर्गिज नहीं मार सकेगा। अब इसे बताऊँ कि तुमने और केवट्ट ने जो दुर्मन्त्रणा की थी, वह क्रियान्वित नहीं हो सकती। यह सोचकर महौषध ने कहा-"राजन् ! तुम गरज रहे हो, धमका रहे हो, यह सब निरर्थक है । तुम्हारे षड्यन्त्र को हमने यथासमय जान लिया। जैसे खलुक जातीय अश्व सैन्धव जातीय अश्व को नहीं पा संकता, उसी प्रकार अब तुम हमारे राजा को नहीं पा सकोगे । विदेहराज कल ही अपने मन्त्रियों तथा पारिवारिक जनों के साथ गंगा महानदी को पार कर चुका है। यदि तुम उसका पीछा करोगे तो मार्ग में ही इस प्रकार निराश और निःसाहस हो जाओगे, जैसे उत्तम हंस का पीछा करने वाला ध्वांक्ष-कौआ प्रपतित हो जाता है-ध्वस्त हो जाता है, परतहिम्मत हो जाता है ।"१ महौषध ने आगे कहा-"रात्रि के समय शृगाल जब किंशुक के लाल-लाल पुष्पों को खिले हए देखते हैं तो वे अधम -नीच-अज्ञानी उन्हें माँस-पेशियाँ समझ बैठते हैं। उन्हें पाने के लोभ से वे किंशुक के वृक्ष को घेरे खड़े रहते हैं। रात बीत जाती है, सूरज उग आता है तो रोशनी में जब यह मालूम पड़ता है कि ये तो किंशुक के फूल हैं, तो उनकी आशा छिन्न-भग्न हो जाती है, टूट जाती है । वे वहाँ से चले जाते हैं । राजन् ! तुम्हारी भी वैसी ही स्थिति होगी, तुम्हें निराश होना पड़ेगा, तुम विदेहराज को नहीं पा सकोगे।"२ निरर्थक धमकी राजा ब्रह्मदत्त ने सोचा-महौषध इतनी निर्भीक वाणी में बोल रहा है, खूब बढ़बढ़कर बातें बना रहा है। इससे प्रतीत होता है, हो न हो, इसने विदेहराज को यहाँ से भगा दिया है । यह सोचकर वह क्रोध से लाल होकर बोला- "इस गाथापति के बच्चे के कारण ही हमारे पहनने के कपड़े तक छिन गये—मिथिला से हमें कपड़े तक छोड़कर भागना पड़ा। इस दुष्ट ने अब हमारे हाथ में आये हुए शत्रु को भगा दिया। मैं विदेहराज को और इसको दोनों को जो दण्ड देने वाला था, अब इस अकेले को ही दूंगा। उसने उसे (महौषध को) दण्डित करने का आदेश देते हुए कहा-"जिसने मेरे हाथ आये शत्रु विदेहराज को भगा दिया है, उसके हाथ-पैर काट दो, नाक-कान काट दो। जिसने मेरे हाथ आये शत्रु विदेहराज को भगा दिया है, जिस प्रकार लोहे की सलाख पर चढ़ाकर मांस पकाया जाता है, १. मोघं ते गज्जितं राज! भिन्नमन्तोसि खत्तिय ! दुग्गण्हो हि तथा राजा खलुकेनेव सिन्धवो॥ २२१॥ तिष्णो हिय्यो राजा गंगं। सामच्चो सपरिजनो। हंसराजं यथा घंको अनुज्जवं पपतिस्सति ॥ २२२ ॥ २. सिगाला रत्ति भागेन फुल्लं दिस्वान किसुकं । मांसपेसीति मञन्ता परिष्कळहा मिगाधमा ।। २२३ ।। बीतिवत्तासु रत्तीसु उग्गतास्मि दिवाकरे। किसुकं फुल्लितं दिस्वा आसच्छिन्ना मिगाधमा ।। २२४ ।। एवमेव तुवं राज ! वेदेहं परिवारिय। आसच्छिन्ने गमिस्ससि सिगाला किंसुकं यथा ।। २२५ ।। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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