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________________ ३४६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ महौषध द्वारा गुप्त रूप में नियुक्त पुरुषों ने जब यह सुना तो वे चिन्तित हुए, न जाने क्या हो । वे अपने अनुचरवृन्द सहित महौषध के यहाँ आ गये । महौषध का प्राकट्य : व्यंग्योक्ति प्रात:काल हुआ। महौषध बिछौने से उठा । नित्यनैमित्तिक कृत्य किये । नाश्ता किया । तैयार हुआ। एक लाख की कीमत के काशी में बने जरी के वस्त्र धारण किये, बहुमूल्य लाल कम्बल कन्धे पर डाला। वह स्वर्ण-दण्ड, जिसमें सात प्रकार के रत्न जड़े थे, जो उपहार में प्राप्त था, हाथ में लिया, सोने की खड़ाऊं पहनी । देवांगना के सदृश, आभूषणों से विभूषित सुन्दर स्त्री उस पर पंखा झल रही थीं। वह देवराज इन्द्र के समान अपने प्रासाद के बरामदे में इस प्रकार टहलने लगा कि राजा चूळनी ब्रह्मदत्त को दिखाई दे सके। चळनी ब्रह्मदत्त की दष्टि उस पर पडी। जब उसने महौषध को संसज्जित. संशोभित देखा तो उसके मन में बड़ी नाराजगी पैदा हुई । उसे अविलम्ब बन्दी बनाया जा सके, यह सोच उसने शीघ्र ही अपने हाथी उधर छोडे । महौषध ने विचार किया, शायद ब्रह्मदत्त समझता है कि मैंने विदेहराज को अपने काब में कर लिया है. उसको घेरे में ले लिया है. अतएव वह जल्दीजल्दी आगे बढ़ा आ रहा है। उसे नहीं मालम कि हमारा राजा इसके पारिवारिक अपहरण कर यहाँ से चम्पत हो गया है । स्वर्ण-जटित दर्पण जैसा अपना द्युतिमय मुख इसे दिखलाकर मैं इसके साथ वार्तालाप करूं । यह सोचकर वह प्रासाद के गवाक्ष में बैठ गया। उसने राजा ब्रह्मदत्त को उद्दिष्ट कर मुसकराते हुए व्यंग्यात्मक मधुर शब्दों में कहा"हाथियों को क्यों जल्दी-जल्दी आगे बढ़ाये आ रहे हो ? तुम समझते होंगे कि तुम्हारी मनः कामना पूर्ण हो गई है; अतएव तुम प्रहृष्ट-बड़े खुश नजर आते हो, किन्तु, सुन लो, अब अच्छा यही है, तुम अपने धनुष को अवहृत कर लो, बाणों को प्रतिसंहृत कर लो-इन्हें समेट लो। अपने स्फटिक तथा मणि-जटित सून्दर कवच को अवहृत कर लो-शरीर से हटा दो" __ जब ब्रह्मदत्त ने महौषध के मुख से यह यह सुना तो विचार किया, यह गाथापति का बच्चा मेरा परिहास कर रहा है। मैं आज इसे बताऊँगा कि मैं क्या करता हूँ। यह सोचकर उसने धमकी भरे शब्दों में उससे कहा-"तुम्हारे मुख पर खुशी नजर आ रही है। तू स्मितपूर्वक-मुस्कान के साथ बात कर रहा है, ठीक ही है, मौत के समय मनुष्य के चेहरे पर ऐसी आभा-उल्लासमय द्युति प्रकट होती है।"२ जिस समय महौषध ब्रह्मदत्त के साथ पूर्वोक्त रूप में वर्तालाप कर रहा था, तब ब्रह्मदत्त की विशाल सेना के सिपाहियों ने महौषध के सुन्दर सौम्य, व्यक्तित्व से प्रभावित थे, सोचा-प्रतीत होता है, हमारा राजा महौषध के साथ विचार-विमर्श कर रहा है, हम भी सुनें क्या वार्तालाप हो रहा है ; अतः वे राजा के निकट आ गये। १. किन्नु सन्तर मानो व नाग पेसेसि कुञ्जरं। पहट्टरूपों आपतसि लद्धत्थोस्मिति मञसि ॥ २१८ ।। ओहरेतं धनु चापं खुरप्पं पटिसंहर । ओहरेतं सुमं वम्म वेळुरियमणिसन्थतं ॥ २१६ ॥ २. पसन्नमुखवष्णोसि मिहितपुव्वं च भाससि । होति खो मरणकाले तादिसी वण्णसम्पदा ।। २२० । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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