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तत्त्व : आचार : कथानुयोग ] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३४५ हाथियों के कन्धों पर ऐसे सुशोभित हैं, मानो नन्दन-वन में देवकुमार हों। मेरी सेनाओं के योद्धाओं ने रंग में मत्स्य-सदृश, तैल-शोधित, प्रभास्वर-आभामय, द्युतिमय, एक समान धार युक्त तलवारें धारण कर रखी हैं । ये तलवारें दोपहर के सूरज की तरह देदीप्यमान हैं। उन पर जंग नहीं लगा है। ये शुद्ध फौलाद से बनी हैं । इनका वार खाली नहीं जाता। इनकी मुठं स्वर्ण-निर्मित हैं। इनकी म्याने लाल रंग की हैं। ये ऐसी प्रतीत होती हैं, मानो सघन मेघों के बीच विद्युत् हो। जिनके रथों पर ध्वजाएँ फहरा रही हैं, जिन्होंने कवच धारण कर रखे हैं, जो तलवार एवं ढाल के प्रयोग में निपुण हैं, तलवार की मूठ दृढ़ता पूर्वक पकड़े रहने में जो विशेष प्रशिक्षित हैं, जिनका वार इतना प्रबल होता है कि हाथी की भी गर्दन कट कर गिर पड़े। विदेहराज ! तुम मेरे इस प्रकार के योद्धाओं के घेरे में आ गये हो। किसी भी तरह तुम इस घेरे से नहीं निकल सकते । अब मुझे तुम्हारी ऐसी कोई ताकत नजर नहीं आती, जिससे तुम यहाँ से बचकर मिथिला जा सको।" . १. पेसेथ कुञ्जरे दन्ती बलवन्ते सट्ठिहायने ।
मद्दन्तु कु रा नगरं वेदेहेन सुमापितं ॥२०॥ वच्छदन्त मुखा सेता तिखिणग्गा अट्ठिवेधिनो। पनुन्ना धनुवेगेन सम्पतन्तु तरीतरं ॥२०६॥ माणवा चम्मिनो सूरा चित्रदण्डयुता बुधा । पक्खन्दिनों महानागा हत्थीनं होन्तु सम्मुखा ॥२०७।। सत्तियो तेलधोतायो अच्चिमन्ती पभस्सरा। विज्जोतमाना तिट्ठन्तु सतरंसा विय तारका ।।२०८।। आयुधबलवन्तानं गुणिकायरधारिनं । एतादिसानं योधानं संगामे अपलायिनं । वेदेहो कुतो मुच्चिस्सति सच पक्खीव काहति ॥२०॥ तिसं मे पुरिसनावुत्थो सव्वे वेकेकनिच्छिता। येसं समं न पस्सामि केवलं महिमं चरं ।।२१०॥ नागा च कप्पिता दन्ती बलवन्तो सट्ठिहायना । येसं खन्धेसु सोभन्ति कुमारा चारुदस्सना ।।२११॥ पीतालंकारा पीतवसना पीतुत्त रनिवासना। नागक्खधेसु सोभन्ति देवपुत्ता व नन्दने ॥२१२॥ पाठीनवण्णा नेत्तिसा तेलधोता पभस्सरा । निहिता नरवीरेहि समधारा सुनिस्सिता ।।२१३॥ वेल्लाळिनो वीतमला सिक्कायसमया दळहा। गहिता बलवन्तेहि सुप्पहारप्पहारिहि ॥२१४।। सुवण्णथरुसम्पन्ना लोहितकच्छूपधारिता। विवत्तमाना सोभन्ति विज्जू वन्भधनन्तरे ॥२१॥ पताका वम्मिनो सूरा असिचम्मस्स कोविदा । थरुग्गहा सिक्खितारो नागक्खन्धाति पातिनो ॥२१६॥ एदिसेहि परिक्खित्तो नत्थि मोक्खो इतो तव । पभावं ते न पस्सामि येन त्वं मिथिलं वजे ॥२१७॥
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