SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 403
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग–चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३४३ विदेहराज ने यह सुनकर महौषध से कहा-'पण्डित ! तुम्हारे पास बहुत थोड़ी सेना है। पाञ्चालराज ब्रह्मदत्त के पास विशाल सेना है। मुकाबले में तुम उसके समक्ष कैसे टिक पाओगे ? तुम दुर्बल हो, वह प्रबल है । तुम उसके हाथों मारे जाओगे।" महौषध ने राजा से कहा-मन्त्रवान्-विशिष्ट प्रज्ञाशील पुरुष के पास यदि बहुत थोड़ी भी सेना हो तो वह अमन्त्रवान्-प्रज्ञाशून्य पुरुष को जीत लेता है । जिस प्रकार सूर्य उदित होकर अन्धकार को जीत लेता है, उसी प्रकार बुद्धिशील एक पुरुष भी, एक राजा भी अनेक पुरुषों को, अनेक राजाओं को जीत लेता है ।"२ । बोधिसत्त्व ने इस प्रकार निश्चिन्त करते हुए राजा को विदा किया। मिथिला प्रयाण विदेहराज मन में हर्षित था कि वह शत्रु के चंगुल से मुक्त हो गया है और उसे इस बात की विशेष प्रसन्नता थी कि जिसे वह हृदय से चाहता था, वह राजकुमारी पाञ्चाल चण्डी उसे प्राप्त हो गई है। उसके मन की अभिलाषा पूर्ण हो गई है। बोधिसत्त्व के गुणों का, विशेषताओं का स्मरण करता हुआ वह अत्यन्त आह्लादित था। वह बोधिसत्त्व की गुणस्तवना करता हुआ सेनक से बोला-सेनक ! पण्डितों का-प्राजपुरुषों का सान्निध्य बड़ा आनन्दप्रद होता है । महौषध का सान्निध्य हमें प्राप्त था, तभी तो हम पिंजरे में बंधे पक्षी के पिंजरे से छुड़ा दिये जाने की ज्यों जाल में आबद्ध मत्स्य को जाल से निकाले जाने की ज्यों हम उसी के कारण शत्रु के चंगुल से छूट सके ।"3 यह सुनकर सेनक ने भी महौषध की प्रशंसा करते हुए कहा-"राजन् ! महौषध ऐसा ही है। प्रज्ञाशील पुरुष वास्तव में बड़े आनन्दप्रद होते हैं। पिंजरे में बन्दी बना पक्षी तथा जाल में आबद्ध मत्स्य जैसे छुड़ा दिये जाएं, वैसे ही महौषध ने शत्रु के पंजे से हमें छुटकारा दिलवा दिया है।४ विदेहराज ने तथा उसके सहवर्तीजनों ने नौकाओं द्वारा गंगा पार की। जैसा पूर्व वर्णित है, महौषध ने आगे की व्यवस्था सोचते हुए योजन-योजन की दूरी पर अवस्थित गाँवों में राजपुरुषों को बसा ही दिया था। राजा तथा परिजन वृन्द नौकाओं से उत्तर कर पास ही के गाँव में पहुंचे । वहाँ महौषध द्वारा नियुक्त आदमी थे ही, वाहन थे ही, सब तैयारी थी ही। उन्होंने राजा को तथा तत्सहवर्तीजनों को भलीभाँति भोजन कराया। १. आपसेनो महामेनं कथं विग्गय्ह ठस्ससि । दुब्बलो बलवन्तेन विहञिस्ससि पण्डित ॥१६७।। २. अप्पसेनो पि चे मन्ती महासेनं अमन्तिनं । जिनाति राजा राजानो अदिच्चोबदयं तमं ॥१६८।। ३. सुसुखं वत संवासों पण्डितेहि ति सेनक। पक्खीव पजरे बद्धे मच्छे जालगतेरिव ! अमित्तहत्थत्थगते मोचयी नो महोसधो ॥१६६।। ४. एवमेतं महाराज ! पण्डिता हि सुखावहा । पक्खीव पञरे बद्धे मच्छे जालगतेरिव । अमित्तहत्थत्थगते मोचयी नो महोसधो ॥२०॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy