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________________ ३४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : ३ तुम्हारे लिए विशेष पूजनीय है ही, अपनी माता के उदर से जन्मे सगे भाई के साथ जैसा स्नेहपूर्ण सौहार्दपूर्ण बर्ताव किया जाता है, वैसा तुम राजपुत्र पाञ्चालचण्ड के साथ करना। यह राजपुत्री पाञ्चालचण्डी है, जिसकी तुम कामना करते रहे हो । यह तुम्हारी अर्द्धागिनी है । इसके साथ जैसा चाहो, बर्ताव करना।' सहचरताः शालीनता विदेहराज भयावह संकट से मुक्त हआ। नाव द्वारा वह आगे जाने को उत्कण्ठित था। उसने महौषध को सम्बोधित कर कहा-"तात ! तुम नदी तट पर खड़े-खड़े वार्तालाप कर रहे हो। अब शीघ्र नाव पर आरूढ हो जाओ। अब तट पर क्यों खड़े हो? बड़ी कठिनता से हम कष्ट से छूटे हैं । महौषध ! आओ अब हम चले चलें।"३ महौषध ने राजा से कहा--देव ! मैं सेना का अधिनायक हूँ । सेना को यहाँ छोड़ कर अकेला ही अपने प्राण बचाने चला चलूं, यह मेरा धर्म नहीं है। मैंने आपके आवासनगर में सेना को रख छोड़ा है । मैं उसे लेकर उसके साथ ही आऊंगा। "सैनिक आपके साथ बहुत दूर से चलकर आये हुए हैं, परिश्रात हैं, अनेक सोये हैं, अनेक खाने-पीने में लगे हैं, उनको यह ज्ञान भी नहीं है कि हम यहाँ से गुप्त रूप में निकल कर भाग रहे हैं । उनमें अनेक रुग्ण हैं, अस्वस्थ हैं। मुझे इस नगर में रहते चार मास हो गये हैं। अनेक ऐसे हैं, जिन्होंने मेरे साथ निष्ठापूर्वक कार्य किया है, जिनके मुझ पर उपकार हैं, मैं उन सब में से किसी एक को भी यहाँ छोड़कर नहीं जा सकता । मैं यहाँ रुकूँगा। आपकी समस्त सेना को राजा ब्रह्मदत्त के नगर से सुरक्षित रूप में अपने साथ लेकर मिथिला पहुंचूंगा। राजन् ! तुम कहीं भी देर किये बिना जल्दी-जल्दी चलते जाओ । मैंने मार्ग में योजन-योजन के अन्तर पर विद्यमान गांवों में अमात्यों को बसाया है, जहाँ तुम्हारे लिए हाथी, घोड़े आदि वाहन पहले से ही सुरक्षित हैं। तुम परिश्रात वाहनों को बीच-बीच गांवों में वहाँ विद्यमान अपने अमात्यों के यहाँ छोड़ते जाओ, वहाँ से ले-लेकर सक्षम वाहनों का उपयोग करते जाओ। इस प्रकार सत्वर मिथिला पहुंच जाओ।" १. उम्मग्गा निक्खमित्वान वेदेहो नावमारूहि । अभिरुळहञ्च तं अत्वा अनुसासि महोसघो।।१६०।। अयं ते ससुरो देव ! अयं सस्सु जनाधिय ! यथा मातु पटिपत्ति एवं ते होतु सस्सुया ॥१६॥ यथापि नियको भाता सउदरियो एकमातुको। एवं पञ्चालचण्डो ते दयितोब्ब रथेसभ ॥१६२।। अयं पञ्चालचण्डी ते राजपुत्ती अभिज्झिता । कामं करोहि ते ताय मारिया ते रथेसभ ॥१६३॥ २. आरुय्ह नावं तरमानो किन्नु तीरम्हि तिट्ठसि । किच्छा मुत्तम्ह दुक्खतो यामदानि महोसध ॥१६४॥ ३.नेस धम्मो महाराज ! यो हं सेनाय नायको। सेनङ्ग परिहापेत्वा अत्तानं परिमोचये ॥१६५।। निवेसनम्हि ते देव ! सेनड्गं परिहापितं । तं दिन्नं ब्रह्मदत्तेन आनयिस्सं रथेसभ ॥१६६।। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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