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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:३
निष्क्रमण,
विदेहराज ने महौषध की बात सुनी। उसके मन में धीरज बंधा। उसे शान्ति मिली। उसे भरोसा हो गया कि अब मेरे प्राण बच जायेंगे। बोधिसत्त्व ने आत्मविश्वास-पूर्वक सिंहनाद किया। सभी को परितोष हुआ। सेनक ने जिज्ञासा की-"पण्डित ! तुम हम सबको यहां से किस प्रकार निकालोगे?"
महौषध बोला- 'मैं तुम सबको एक सुसज्जित, सुशोभित सुरंग द्वारा ले जाऊंगा। तुम सब चलने हेतु सन्नद्ध हो जाओ।" उसने अपने योद्धाओं को आदेश देते हुए कहा"नौजवानो ! उठो, सुरंग का मुख खोलो, कपाट खोलो । विदेहराज अपने मन्त्रियों सहित सुरंग-मार्ग द्वारा जायेगा।
___ महौषध के तरुण योद्धा उठे। उसके आदेशानुसार उन्होंने सुरंग के यन्त्र-चालित दरवाजे को खोल दिया।
सुरंग सुसज्जित देवसभा की ज्यों आलोकमय थी । योद्धाओं ने अपने स्वामी महौषध को अवगत कराया कि उन्होंने उस के आदेश का पालन कर दिया है।
महौषध ने विदेहराज को संकेत द्वारा समझाया-अब तुम महल से नीचे उतर आओ। राजा नीचे आया। महौषध ने कहा-''अब हमें सुरंग द्वारा आगे जाना है।"
सेनक ने अपने मस्तक से पगड़ी उतारी। वह अपने कपड़े ऊँचे करने लगा। महौषध ने उसे ऐसा करते देख पूछा-"ऐसा क्यों कर रहे हो ?"
सेनक बोला- "सुरंग में से चलना है न ? वैसा करते समय; क्योंकि स्थान संकड़ा होगा, पगड़ी को सम्हाले रखना चाहिए, वस्त्रों को ठीक किये रहना चाहिए।"
है ! ऐसा मत सोचो कि सुरंग में झुककर घुटनों के सहारे सरकते हुए प्रविष्ट होना होगा। आगे भी वैसे ही चलना होगा। यह सुरंग ऐमी है कि गजारूढ पुरुष भी उसमें से गुजर सकता है। तुम चाहो तो गजारूढ होकर भी जा सकते हो । सुरंग अठारह हाथ ऊँची बनी है। उसका दरवाजा बहुत बड़ा है। तुम जिस प्रकार चाहो, सज्जित-सुसज्जित होकर राजा के आगे-आगे चलो।"
मा तं भायि महाराज ! मा तं भायि रथेसभ ! अहं तं मोचयिस्सामि पेळाबद्धं व पन्नगं ॥ १८२॥ मा तं भायि महाराज ! मा त भायि रथेसभ ! अहं तं मोचयिस्मामि मच्छे जालगतेरिव ॥ १८३ ॥ मा तं मायि महाराज | मा तं भायि रथेसभ ! अहं तं मोचयिस्सामि सयोग्ग बलवाहनं ॥१८४ ॥ मातं भायि महाराज ! मा तं भायि रथेसभ 1 पञ्चालं वाहयिस्सामि काकसेनं व लेटठुना ॥१८॥ आदु पचा किमत्थिया अमच्चो वापि तादिसो।
यो तं सम्बाध पक्खन्तं दुक्खा न परिमोचये ॥१६॥ १. एथ मागवा ! उठेथ मुखं सोधेथ सन्धिनो। _ वेदेहो सह मच्चेहि उम्मग्गेन गमिस्सति ॥ १७॥ २. तस्स तं वचनं सुत्वा पण्डितस्सानुसारिनो। उम्मग्गद्वारं विवरिस यन्तयुत्ते च अग्गले॥१८॥
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