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________________ ३३९ तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ही भीतर जल रहा है। वह बाहर से जलता हुआ नहीं दिखाई देता।" आश्वासन महौषध पण्डित ने राजा की अन्तर्वेदना सुनी । सोचा, इस समय यह बहुत आकुल है। इस समय यदि इसे ढाढ़स नहीं बंधाऊंगा तो इसका दिल टूट जायेगा,प्राण निकल जायेंगे। यह सोचकर प्रज्ञाशील, धैर्यशील, सूक्ष्म रहस्यवेत्ता महौषध पण्डित ने कहा"राजन ! भय मत करो। जिस प्रकार राहु के मुंह से चन्द्र को छुड़ा लिया जाए, उसी प्रकार मैं तुमको इस संकट से छुड़ा लूंगा। डरो नहीं, राहुग्रस्त सूरज को ग्रास से छुड़ा लेने की ज्यों मैं तुमको इस दुःख से छुड़ा लूंगा। "राजन् ! जैसे कर्दम में फंसे गजराज को वहाँ से निकाल लिया जाए, वैसे ही इस संकट से मैं तुमको निकाल लूंगा। पिटारी में बन्द सर्प को जैसे उसमें से छुड़ा दिया जाए, वैसे ही मैं तमको इस कष्ट से छडा दंगा। जैसे जाल में फंसे मत्स्य को उससे निकाल दिया जाए, वैसे ही मैं तुम्हें इस विपत् से निकाल दूंगा। "राजन् ! भयभीत मत बनो । मैं तुमको गज, अश्व, रथ, पदातियुक्त सेना, वाहन आदि समस्त दलबलसहित यहाँ से छुड़ा लूंगा। मैं पाञ्चाल राज को ससैन्य इस प्रकार खदेड़ दूंगा, जैसा ढेला मारकर कौओं को भगा दिया जाए। उस अमात्य-मन्त्री या मन्त्रणाकार से क्या लाभ, जो तुम्हें, जो इस समय अत्यन्त विपद्ग्रस्त हो, दुःख से न छड़ा सके। इस समय भी मैं यदि तुम्हारा प्राण न कर सकू तो मेरी प्रज्ञाशीलता की फिर उपयोगिता ही क्या हो।"२ १. यथा कदलिनो सारं अन्वेसं नाधिगच्छति । एवं अन्वेसमानानं पञ्हं नाझ गमामसे ।। १७३ ।। यथा सिम्बलिनो सारं अन्वेसं नाधिगच्छति । एवं अन्वेसमानानं पञ्हं नाझ गमामसे ॥ १७४ ।। अदेसे वत नो वुत्थं कुञ्जरानं वनोद के। सकासे दुम्मनुस्सानं बालानामविजानतं ॥ १७३ ।। उब्बेधते मे हृदयं मुखञ्च परिसुस्सति । निब्बुर्ति नाधिगच्छामि अग्गिदड्ढो व आतपे ॥ १७४॥ कम्मारानं यथा उक्का अन्तो झायति नो बहि। एवम्पि हृदयं मय्हं अन्तो झायति नो बहि ॥ १७५ ॥ २. ततो सो पण्डितो धीरो अत्थदस्सी महोसघो। वेदेहं दुरिखतं दिस्वा इदं वचनमब्रवी ॥ १७८ ॥ मा तं भायि महाराज ! पा तं भायि रथेसभ ! अहं तं मोचयिस्सामि राहुगहितं व चन्दिमं ॥१७६ ॥ मा तं भायि महाराज ! मा तं भायि रसभ ! अहं तं मोचयिस्सामि राहुगहितं व सूरियं ॥ १८०॥ मातं मायि महाराज ! मा तं भायि रथेसभ । अहं तं मोचयिस्सामि पके सन्तं व कुञ्जरं ॥११॥ ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002623
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1991
Total Pages858
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Philosophy, Conduct, & Story
File Size17 MB
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