________________
३३५ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : ३ __राजा ने काविन्द पण्डित से कहा-'काविन्द ! मेरा कथन सुनो । देख रहे हो, हम विभीषिका से घिरे हैं। मैं तुझसे पूछता हूँ, बतलाओ, हम किस उपाय का अवलम्बन करें, जिससे हमारा परित्राण हो।"१
काविन्द बोला-"हम गले में रस्सी द्वारा फाँसी लगाकर प्राण दे दें या ऊँचे स्थान से गिर कर अपना जीवन समाप्त कर दें, ताकि राजा ब्रह्मदत्त हमें बहुत समय तक घुलाघुलाकर न मारे।"२
राजा का भय बढ़ता गया। उसने देविन्द से कहा-देविन्द ! मेरी बात सुनो । मैं तुमसे पूछता हूँ, इस भयापन्न विषम स्थिति में हम क्या करें, जिससे हम कष्ट मुक्त हो
सकें।"
देविन्द ने अपने उत्तर में वही बात दुहराई, जो सेनक ने कही थी। उसने कहा"हम अपने आवास-स्थान के द्वार बन्द कर दें। भीतर आग लगा दें। शस्त्र प्रहार द्वारा परस्पर एक दूसरे का वध कर दें। यों शीघ्र ही हमारे प्राण छूट जायेंगे। हमें यही करना चाहिए; क्योकि महौषध भी हमें इस आपत्ति से नहीं उबार सकता।"४
राजा ने यह सुना। सब निरर्थक था। उसे कोई सम्बल प्राप्त नहीं हुआ। पर, क्या करता, विवश था। बोधिसत्त्व का वह अविवेकवश तिरस्कार कर चुका था। ज्योंही उसे स्मरण करता, उसे हिम्मत नहीं हो पाती कि उसके साथ इस सम्बन्ध में वह कुछ और बातचीत करे। उसने बोधिसत्त्व को सुनाते हुए अपना दुःखड़ा रोया-"यदि कोई केले के तने के निरन्तर छिलके उतारता जाए तो भी वह अन्तत: उसके भीतर कोई सारभूत वस्तु प्राप्त नहीं कर सकता, उसी प्रकार लगातार अन्वेषण करने पर भी हमें अपनी समस्या का कोई समाधान प्राप्त नहीं होता। जैसे सिम्बली-शाल्मलि या सेमल के डोडे में अन्वेषण करते जाने पर भी कोई सार प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार प्रस्तुत समस्या को सुलझा पाने का हमें कोई उपाय नहीं सूझता । जिस प्रकार हाथी का जलरहित स्थान में रहना अनुपयुक्त होता है, उसी प्रकार दुर्मनुष्यों, दुर्जनों, मूखों एवं अज्ञजनों के बीच मेरा रहना अनुपयुक्त है, कष्टकर है। मेरा हृदय उत्तेजित-पीड़ित, प्रकम्पित हो रहा है, अन्तर्वेदना से मुख सूख रहा है। जैसे अग्निदग्ध-आग से जले हुए, झुलसे हुए मनुष्य को धूप में शान्ति प्राप्त नहीं होती, उसी प्रकार मुझे शान्ति नहीं मिल रही है । मेरा चित्त अशान्त है। जैसे कुम्भकारों की अग्नि भीतर से जलती है, बाहर से जलती नहीं दीखती, वैसे ही मेरा हृदय भीतर
१. सुणोहि एतं वचनं पस्ससेतं महन्भयं । __ काविन्दं दानि पुच्छामि किं किच्चं इध मञ सि ॥ १६६ ॥ ... २. रज्जया बज्झ मिय्याम पपाता पपते मसे।
मा नो राजा ब्रह्मदत्तो चिरं दुक्खेन मारयि ॥ १७॥ ३. सणोहि एतं वचनं पस्ससेतं महब्भयं ।
देविन्दं दानि पुच्छामि किं किच्चं इध मनसि ॥ १७१॥ ४. अग्गिं द्वार तो देम गण्हामसे विकत्तनं। अञ्जमलं वधित्वान खिप्प हेस्साम जीवितं । न नो सक्कोति मोचेतं सुखेनेव महोसघो॥ १७२॥
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org