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तत्त्व : आचार : कथानुयोग] कथानुयोग-चतुर रोहक : महा उम्मग्ग जातक ३३७
___बोधिसत्त्व ने सेनक को निगृहीत करते हुए, प्रत्युत्तरित करते हुए कहा-"मनुष्य का पूर्वाचीर्ण कर्म बडा दुष्कर, दुस्तर और दुःसह होता है। मैं तुम लोगों का उस कर्म-फल से छुटकारा नहीं करा सकता । सेनक ! अब तुम जानो, तुम्हारा काम जाने।"१
मूढ चिन्तन
राजा का होश गुम हो गया। उसके बचाव का कोई मार्ग नहीं था। उसके मन में मृत्यु की काली छाया समाई थी। अपराधी होने के कारण, जैसा पूर्व सूचित है, वह अब बोधिसत्त्व से और वार्तालाप करने में, अनुरोध करने में अपने को अक्षम पाता था। 'डूबते को तिनके का सहारा' के अनुसार जब उसे और कोई रास्ता नहीं सूझा, तो उसने यह सोचकर कि शायद सेनक ही कोई मार्ग निकाल सके, उससे पूछा-'सेनक ! मेरी बात सुनो, इस समय हम सब पर बड़ा भय छाया है। मैं तुमसे पूछता हूँ, बतलाओ, अब हमें क्या करना
चाहिए?
यह सुनकर सेनक ने विचार किया- राजा उपाय पूछना चाहता है, चाहे वह अच्छा हो या बुरा, मुझे बता देना चाहिए । वह बोला-"हम लोग अपने आवास-स्थान के दरवाजे बन्द कर लें। अपने भवन में आग लगा दें। शस्त्र-प्रहार द्वारा आपस में एक दूसरे को अविलम्ब मार डालें, जिससे चूळनी ब्रह्मदत्त हमें दीर्घकाल पर्यन्त कष्ट देकर न मारे।"3
सेनक का उत्तर सुनकर राजा को बड़ा असन्तोष हुआ, मन में पीड़ा हुई। उसके मुंह से निकला- "सेनक ! पहले तुम अपने बीबी-बच्चों की तो इस तरह चिता फूको, आग लगाकर उन्हें जलाओ, आगे हम देखेंगे।"
राजा ने पुक्कुस पण्डित से भी उसका अभिमत पूछा-'पण्डित ! मेरी बात सुनो। तुम देख ही रहे हो, भारी भय व्याप्त है । मैं तुमसे पूछता हूँ, अपना अभिमत बतलाओ, अब हम क्या करें?"४
पुक्कुस बोला-'अच्छा यही है, हम सभी विष-भक्षण कर मर जाएं। यों शीघ्र ही हमारे प्राण छूट जायेंगे, जिससे ब्रह्मदत्त हमें बहुत समय तक उत्पीडित कर, क्लेशित कर मारने का अवसर नहीं पा सकेगा।"५
राजा ने यह सुना। उसे कोई त्राण नहीं मिला, उसका भय और बढ़ गया।
१. अतीतं मानुस कम्मं दुक्करं दुरभिसम्भवं ।
न तं सक्कोमि मोचेतुं त्वम्पि जानस्सु सेनक !! १६४ ॥ २. सुणोहि मेतं वचनं पस्स सेतं महब्भयं ।
सेनक ! दानि पुच्छामि कि किच्चं इध मञ्जसि ॥ १६५ ।। ३. अग्गि द्वार तो देम गण्हाम से विकत्तनं, अजमलं वषित्वान खिप्पं हेस्साम जीवितं ।
मा नो राजा ब्रह्मदत्तो चिरं दुक्खेन मारयि ॥ १६६ ॥ ४. सुणोहि एतं वचनं पस्ससेतं महन्मयं ।
पुक्कसं दानि पुच्छामि कि किच्चं इध इमनसि ॥ १६७ ।। ५. विसं खादित्वा मिय्याम खिप्पं हेस्साम जीवितं ।
मा नो राजा ब्रह्मदत्तो चिरं दुक्खेन मारयि ॥ १६८ ।।
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